कनपुरिया बोली की बात ही अलग है, क्यों गुरू...

हमेशा की तरह कानुपर की सड़कों पर भीड़ है। भीषण जाम की नौबत बस आई लगती है। झकरकटी बस अड्डे के पास भी भीड़ है। पुल पर वाहनों की कतार बढ़ती जा रही है। बगल में नया पुल बन रहा है। अक्सर यहां ऐसी ही स्थिति रहती है। लोगों को आने जाने में आएदिन परेशानी उठानी पड़ती है। आज भी ऐसा ही दृश्य था। बाइक सवार परेशान हैं। कार सवार भी हाॅर्न दे दे देकर परेशान हो रहे। और दूसरों के भी कानों को तकलीफ दे रहे हैं। बाइक सवार मनोज और विकास भी पुल पर हैं। बाइक से किसी तरह पुल से कुछ 70-80 मीटर दूर मौजूद टाट मिल चैराहा पार करना चाह रहे हैं। लेकिन बाइक हर दो फीट पर रोकनी पड़ रही है। बारिश का मौसम है। आसमान में घनघोर बादल छाए हैं। कैसे पुल पार किया जाए। इसी उधेड़ बुन में मनोज और विकास बाइक को आगे बढ़ाने का जतन कर रहे हैं। 


पैदल सवार किनारे बने फुटपाथ पर निकले जा रहे हैं। अच्छा होता कि बाइक की जगह आज पैदल ही जाते। इसी उधेड़ बुन में लगभग आधा घंटा लग गया। अरे चचा कहां घुसे जा रहे हो। जरा आराम से। बाइक चला रहा मनोज अब जाम से झुंझलाने लगा था। धीरे धीरे किसी तरह वे दोनों टाट मिल चैराहा पार कर लते हैं। यहां पर बाइक थोड़ी आसानी से आगे बढ़ाई जा सकती है। भाई जल्दी घर पहुंचो नहीं तो बारिश में भीग जाएंगे। नहीं गुरू आराम से ही चलते हैं। अभी वे टाट मिल से कुछ दूर चले होंगे कि पीएसी मोड़ के पास अचानक धड़ धड़ाम करते हुए एक बाइक उनके बगल से फिसलते हुए निकली। और आगे कुछ दूरी पर जाकर सड़क पर बिछ गई उस पर सवार युवक भी सड़क पर ही पसर गया। गनीमत रही कि उसे ज्यादा चोट नहीं पहुंची। तुरंत उठकर वह अपने शरीर को हाथों से चेक कर स्वयं को संतुष्ट करने लगा। बच गए, चोट नहीं लगी है। तब तक वहां लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी। मनोज और विकास भी वहीं थे।  

और गुरू ठीक हो? अभी टहलते-टहलते बचे हो। कांहे को टाॅम क्रूज बने फिर रहे हो भइया। अब न चलहियो 70 का स्पीड मा? सुनकर अबतक अपने शरीर को सही सलामत देखकर संतोषमग्न युवक अब जाकर अपना हेलमेट उतारता है। हेलमेट उतारते ही उसके मुंह से रक्त का फव्वारा छूट पड़ता है। गुरू  विकास इसके मुंह से तो भलभलाकर खून आ रहा है, लगता है हपक के चोट ले लिस है का? अरे कांहे को बकैती किए पड़े हो भाई। केसर खाए थे, वही थूका है मैने। दूसरी केसर की पुड़िया निकालते हुए युवक ने लजाते हुए जवाब दिया। और हां हम बिलकुल फिट हैं। सुनकर वहां मौजूद लोग भी मुस्कुरा दिए और अपने अपने काम पर चल दिए। खैर युवक ने बाइक उठाई और वहां से चलते बना। अब चोट लगी होगी तो खुद ही घंटे भर में असर करेगी। और बच्चू को डाॅक्टर की याद आएगी। 


मनोज और विकास वहां से आगे बढ़ते हैं। देखा गुरू कैसे तेज बाइक चलाने से लौंडा लहर गया था। हां मनोज मैंने सोचा कि वो कोई कला दिखा रहा है। अच्छा हुआ हपक के चोट नहीं लगी उसे। नहीं तो अबतक हैलट में (अस्पताल) ही नजर आता। मनोज बाइक की रफ्तार धीमी ही रखता है। और बड़ा चैकन्ना होकर आगे बढ़ता है। अपने ख्यालों में वह सोचता है कि अपना तो बाइक चलाने में भोकाल है। कब्बो बाइक नहीं पलटाई है। चाहे दस ठो कुल्फी ही क्यो न खाई हो। पता नांही कांहे ये नए लौंडे बाइक को हवाई जहाज समझ लेते हैं। पलट जाए तो बिना मदद के खुद की बाइक भी खड़ी न कर पइहें। लेकिन बाइक चाही दू सौ बीस सीसी वाली। खुद का वजन भले ही पचासे किलो कांहे न हो। 


आगे चलकर मनोज और विकास रास्ते में पड़ने वाले अपने मित्र की दुकान पर कुछ देर के लिए ठहरते हैं। ये भी होगा कि नहीं। हमेशा तो गच्चा ही दे जाता है। पता नहीं क्या मौज आती है उसे। भाई हम उससे उधारी थोड़े ही न मांग रहे हैं। वैसे भी पता है कि वो दस महीने से पहले तो चुकता करेगा नहीं। कम से कम आएं हैं तो मिल तो ले। ये सोचते हुए मनोज ने मित्र को आवाज लगाई। विनोद, विनोद भाई कहां हो। कुछ देर तक कोई जवाब नहीं आता है। लगता है आज भी गच्चा दे दिस। तभी विनोद बाहर आता है। और गुरू तुम लोग इहां कैसे नजर आ गए। अरे छोड़ो बतोलेबाजी न करो। हमेशा तो गच्चा देकर छिप जाते हो। आज निकल आए तो बकैती शुरू कर दी। अरे नहीं गुरू मैं क्यों दोस्तों को गच्चा देने लगा। घर पर नहीं रहा होउंगा तभी नहीं निकला होउंगा। 

विनोद ...जो लगभग 108 किलो का होगा। पेट निकला हुआ। छोटा कद। टी शर्ट मानो पेट पर ही अटका हुआ हो। अरे विनोद जिम जा रहे हो क्या। कैसे मेंटेन कर रहे हो? सुबह रनिंग चल रही है क्या? मनोज ने बनावटी गंभीर होकर पूछा। कांहे हम ही मिले हैं का। दिनभर कोई और नहीं मिला। नहीं, सच में गुरू दुबले लग रहे हो। कांहे चिकाईबाजी कर रहो। और मोटे होते जा रहे हैं। तुम लोग और पानी पर चढ़ा रहे हो। लेकिन इन बातों को सुनकर विनोद अपनी सांसे रोककर खुद के पेट को अपने आप में ही समेटने की कोशिश करता है। और खुद को मजबूरीवश मोटा तो साबित करना चाहता है, लेकिन किसी पहलवान की तरह हष्ट पुष्ट भी घेषित कराना चाह रहा है। इसके इस छलावे को मनोज और विकास भलीभांति समझ रहे थे। सांस तो ले लो कितनी देर तक सांस रोकोगे। विकास के इस व्यंग पर विनोद ने कहा तुम लोग न मौज ले लो। और किसी की तो ले नहीं पाओगे। बस हमसे ही तफरीह और चिकाई बाजी कर लो, जितनी चाहे। अच्छा भाई विनोद हम लोग चलते हैं, कहीं बारिश शुरू हो गई तो हम लोगन का काम पैंतीस हुई जाई। 

मनोज और विनोद वहां से निकलते हैं। विनोद देखा तुमने कैसे सांसे रोकर अपने को सलमान खान समझ रहा था। हां, लेकिन उसे कहां पता था कि हम से पार पाना मुश्किल है। तभी मनोज मनोज। कौन है। देख तो। कौन कान फाड़ रहा है। अरे रग्घू है। समोसा चांपे पड़ा है। रुको-रुको। जरा उसका पैसा गलाते हैं। हां सही कह रहे हो। वे बाइक को मोड़कर चाट के ठेले के पास पहुंच जाते हैं। अरे अकेले अकेले हंउके पड़े हो। नहीं नहीं यार, अकेले खाना होता तो तुम लोगों को आवाज थोड़े ही न देता। हां बात तो ठीक कर रहा है। क्यों भाई मनोज। हां ठीक ही कह रहा है। वैसे लौंडा हीरा। बस करो समझ रहा हूं तुम लोग पानी पे ले रहे हो। चलो क्या खाओगे। ले लो। लाओ भइया दो दो समोसा और दो दो गुझिया दे दो। तीनों खाने में मग्न हो जाते हैं। रग्घू नाटा कद, सिर पर कम बाल, कत्थई शर्ट पुरानी हो चुकी काली पैंट में खोसे हुए। रेक्सीन का जूता पहने इधर उधर देख रहा था। शायद वे दोनों को झांसा देकर वहां से निकलने का प्लान बना रहा था। जो उसकी आदत थी। जब भी चक्री घूमती थी और पैसा देने का उसका नंबर आता था तो वो इसी तरह कोई न कोई बहाना बनाकर पैसे खर्च करने से बच जाता था।   

रग्घू मनोज से बोला भाई अभी आया। घर से फोन आ रहा है। देखें क्या बात है। ठीक है जल्दी निपटा के आओ, मनोज बोला। ठीक है बोलकर रग्घू वहां से रफू चक्कर हो जाने वाला था। इधर मनोज और विकास समोसा चाट और गुझिया खा चुके हैं और कुछ घर के लिए भी ठोंगे में बंधवा लिए हैं। विकास अब वहां से चलने को आतुर है। बदली भी घनी है। कभी भी बारिश हो सकती है। रग्घू अभी तक नहीं आया। बारिश भी शुरू होने लगी है। कहां रह गया। कहीं हम लोगन को टोपी तो नहीं पिन्हा दिस। ऐसा काम तो ये करता ही है। मनोज रग्घू कहां रह गया? अबतक नहीं आया, जरा फोन मिलाओ उसका। कम से कम पैसा तो देकर जाता। उधर दुबला पतला ठेले वाला भी इनपर गिद्ध दृष्टि बनाए हुए अपने पैसे की आस लगाए हुए है। भाई स्विच आफ आ रहा है। 

अरे ये बतोलेबाज रग्घू फिर से दिखा दिस अपनी असलियत। फिर से टोपा बना दिस। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद जब यह तय हो गया कि रग्घू अब न आएगा तो दोनों ने जेब से पैसे निकाले और ठेले वाले को चुकता किया। झुंझलाए हुए दोनों वहां से निकलते हैं। आसमान पर नजर दौड़ाने के बाद मनोज बाइक आगे बढ़ाता है। चलो कोई बात नहीं। अपने ही पेट में तो गया। और बारिश भी हो रही है। घर पर समोसे और गुझिया ले जाएंगे घरवाले भी खुश हो जाएंगे। क्यों गुरू, बीबी के बारे में सोच रहे हो क्या? बड़ी शांत हो। अरे नहीं विकास भाई मैं तो ये सोच रहा था कि अबकी रग्घू को कैसे गच्चा पिलाया जाए। ठीक कहि रहे गुरू। आज तो इसने हमें ही टोपी पिन्हा दिया। अब सुबह मिलेगा तब उसे बताया जाएगा कि झाम कैसे दिया जाता है। हमेशा यही करता है। एक नंबर का गच्चेबाज है। 

अंधेरा घिर चुका था। बाइक पुरानी थी। दो सवारी होने पर बड़ी मुश्किल से एक नंबर गियर पर उठती थी। फिर सौ फीट दूर जाकर ही उसमें रवानी आती थी। पुरानी बाइक की हल्की रोशनी सड़क पर नाम मात्र की पड़ रही थी। ये तो इसी रास्ते से रोज आना जाना था। इसलिए कहां पर गड्ढे हैं और कहां पर बचकर निकलना है सब मनोज को याद है। वरना कोई नौसिखिया तो इन रास्तों पर कुछ देरी में हाथ पैर तुड़वा बैठे। मनोज का अनुभव यहां काम आ रहा था। जिसपर वह खुद को किसी नायक से कम नहीं समझ रहा था। केसर चांपते हुए वे बढ़े जा रहे थे कि, कौन है भाई हाॅर्न पर हाॅर्न दिए पड़ा हैं। देख तो कोई कार तो नहीं है विकास। नहीं यार बाइक ही है। इसी बीच हाॅर्न देने वाला अपनी मोपेड को पूरी रफ्तार से उनको ओवर टेक करता है। मोपेड वाला भी मुस्कुराता हुआ इन्हें देखता है। अब यही रह गया कि बाइक को भी मोपेड वाले पीछे छोड़ेंगे। भाई मनोज तुम तो अपनी इस बाइक को बेच दो और जो पैसे मिले उसमें कुछ रकम और जोड़कर कोई रेंजर साइकिल ले लो। 






विकास के इस व्यंग को मनोज समझ रहा था। बुहत चैड़िया रहे हो तुम गुरू। अभी यहीं छोड़ देंगे आओगे विक्रम करके, लुढ़कते लुढ़कते। अरे नहीं मैं तो मजाक कर रहा था। हां बात तो सही है बाइक तो पुरानी हो गई है। अब नया कहां से लूं। मार्केट की हालत तो देख ही रहे हो। सबकुछ डाउन है। बात तो सही है भाई मनोज। मनोज और विकास दोनों ने ही एमए प्रथम श्रेणी से पास की हैं। लेकिन उन्हें सरकारी नौकरी मिली नहीं थी। न ही प्राइवेट। मनोज तो प्राइवेट नौकरी का स्वाद ले चुका था। इसलिए उसकी हिम्मत दोबारा प्राइवेट नौकरी करने की नहीं थी। ऐसा नहीं था कि वे काबिल नहीं थे, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। वरना आज भी बड़े बड़े नौकरी करने वाले उनके आगे नत्मस्तक होकर चलते हैं। 

मजाल है कि कोई उनसे बतोलेबाजी कर ले। हर विषय में वे अपने विपक्षियों को मात दे देते थे। अपने तर्काें से जमकर धो दिया करते थे। खैर नौकरी नहीं मिलने से उनका ज्ञान अब ज्ञान नहीं माना जाता था। उनका ज्ञान खुद तक ही सीमित कर दिया गया था। घर समाज में नौकरी करने वालों की बातों को अकसर समझदारी वाली बातें समझी जाती हैं। भले ही उसे सर्विस की स्पेलिंग नहीं आती हो। अब तो घरों में उनकी ही ज्यादा पूछ परख होती है, जो नौकरी करते हैं। सरकारी नौकरी है तो पूछने ही क्या। बातें ऐसी निकलती हैं, जैसे आईएएस हो गए हों। खैर ठीक भी है। इस मंदी और बेरोजगारी के दौर में किसी के पास सरकारी नौकरी का होना किसी वरदान से कम तो है नहीं। बाजार में चाहे जो कुछ घटे, उन्हें इससे क्या। हर महीने बंधी बंधाई तनख्वाह तो खाते में आ ही जाती है।  

खैर घूमते घामते दोनों अपने घरों को पहुंचते हैं, जहां उनकी अर्धांगनियां स्वागत करती हैं। और वो भी अपनी मधुरता से भरे कर्कश प्रश्नों के साथ। कहां रह गए थे? इतनी देर में तो फतेहपुर से कानुपर पहुंच जाते और वो भी पैदल और तुम टाटमिल से रामादेवी नहीं पहुंच सके। चैराहे के पास क्या फिर से बैठकी लग गई थी। क्या बोलती हो? मनोज ने चाटूकारिता और चमचई की समस्त विद्याओं का मिश्रण कर अपने भावों में उतार दिया। नहीं श्रीमती जी हम तो समय पर आ जाते। लेकिन बारिश ने हमारा काम पैंतीस कर दिया। जहां तहां रुक रुक आना पड़ा। ये ठोंगे में समोसे और चाट हैं। खा लो। अच्छा बड़ा हमारा ख्याल आ गया। पहले तो कभी नहीं लाए। श्रीमती जी बड़े इतराते हुए मनोज से बोली। अब यही तो कहोगी। इससे पहले पार्क घूमाना, चाउमिन, पिज्जा कौन खिलाता था। मनोज ने नाराजगी का स्वांग रचते हुए जवाब दिया। खैर यही हाल विकास का भी था। उसके साथ भी उसके घर में कुछ ऐसा ही सदव्यवहार हुआ था।  

अगली सुबह मनोज और विकास फिर से गुमटी (जगह का नाम). के लिए निकलते हैं। अभी वे कुछ दूर ही पहुंचे थे कि उनका गच्चेबाज मित्र रग्घू गन्ने का रस पीते हुए दिख गया। विकास ये देख ये रग्घू को। ये गन्ने का रस झेले पड़ा है। हां, रुको जरा इसकी खैरियत लेते हैं। बड़ा मौज काट रहा है। क्यों भाई रग्घू कल कहां गच्चा दे गए थे। कम से कम अपना तो पैसा दिए जाते। सारी टोपी हमपर रख दी। रग्घू हमेशा की तरह अपनी कुटिल मुस्कान के साथ अपनी सफाई देने लगा। नहीं यार। जरूरी काम था इसलिए लौट नहीं पाया। और तुम लोगों ने भी तो कल परेड में हो के नाम पर मुझे धुप्पल में रखकर बैठकी लगा दी थी। ढक्कन समझे हो का हमको। 

फोन करने पर तुम लोगों ने भी हमको झाम दे दिया था। चलो अब बतोलेबाजी न करो। विकास ने एक तरफ झुकते हुए बड़े इस्टाइल से मुंह बनाते हुए कहा। तुम हमेशा ही झाम दे जाते हो। सो कल भी दे दिया। लाओ पहले कल जो चाट का पैसा दिया था अब वो लौटाओ। विकास ने मजाक में ही कहा था। अरे यार मैं तो बस दस रुपए ही लेकर आया था। उसका तो मैने जूस पी लिया। भाई पैसे नहीं हैं। भाई थोड़ा सौ रुपए उधार दे दो। गच्चा और झाम देने के बाद भी रग्घू की यह मांग उसकी हिम्मत को दर्शाती है। ये सिर्फ पैंतरा था कि कहीं, वाकई में ये दोनों कल का पैसा न निकलवा लें। दोनों ने उसकी पुरानी आदतों को देखते हुए झाम दे दिया और वहां से निकल लिए। हमेशा उधारी ही मांगता रहता है। पी गया कल का पैसा। मनोज ने विकास की हां में हां मिलाई। 






मनोज आजकल नौकरी मिलनी अब कितनी मुश्किल हो गई है। अब क्या किया जाए? नौकरी और हमारी तो पुरानी दुश्मनी है। हम उसके पीछे भागते हैं और वो हमसे दूर भागती है। विकास ने गंभीरतापूर्वक दार्शनिक बनते हुए अपना जवाब दिया। धीरे-धीरे वो आगे बढ़ ही रहे थे कि जीटी रोड पर ट्रैफिक वाले वाहन चेकिंग अभियान छेड़े हुए थे। अरे-अरे रुको। कहां जाते हो। अरे उपरे चढ़इयों का। उनकी बाइक रोक ली गई। उनकी चरमराती हुई बाइक, जो कई महीनों से मोबील आयल का स्वाद नहीं ले सकी थी को भी थोड़ा आराम मिला। स्टैंड पर लगाने के बाद उनकी बुढ़िया बाइक अपने पिछले टायर पर जाकर आराम से खड़ी हो गई। मानो खेत जोत रहे बैलों को शाम को आराम करने का मौका मिला हो। साहेब! इनके पास गाड़ी के कागजात नहीं हैं। ना ही लाइसेंस। कहते हैं घर भूल आए, और तो और हेलमेट भी हाथ में फंसाकर बाइक चला रहे थे। दुबला पतला होमगार्ड का सिपाही, चेहरा धंसा हुआ और उम्र करीब 55 की रही होगी। अपनी सरकती बेल्ट को सही करते हुए दोनो को साहेब के पास ले गया।

साहेब दारोगा जी थे। सफेद शर्ट और खाकी पैंट में उनकी यूनीफार्म चमक रही थी। शायद भर्ती की निर्धारित आयु बीतते बीतते दरोगा बन गए थे। अपनी एक टांग बाइक के लेग गार्ड पर जमाए हुए किसी का बिना हेलमेट वाला चालान काटने में बिजी हैं। उनका पेन बार बार रुक रहा था। सो वह बार बार अपने बिना रिफिल वाले पेन को झटकार भी रहे थे, और अपनी कार्रवाई में कोई ढीलाई नहीं बरत रहे थे। वैसे भी बाइक की सीट पर चालान बुक रखकर लिखना आसान काम तो है नहीं। उन्हें बाइक का बैलेंस भी बनाना पड़ रहा है।

उनके चारों ओर विराट कट हेयर इस्टाइल वाले और केजीएफ इस्टाइल में दाढ़ी रखे नवजवानों की भीड़ लगी है। कोई हाथ में कागज तो कोई चालान भरने के लिए रुपए लिए बेमन से खड़ा अपनी बारी आने इंतजार कर रहा है। कई नियमतोड़ू तो इधर उधर जुगाड़ लगाने में भी भिड़े थे। कोई घर से गाड़ी के कागजात भी मंगा रहा है। मोबाइल पर जुगाड़ लगाई जा रही थी। कई बेगार तो यूं ही वहां मजमा लगाए हुए हैं। कुछ ही दूरी पर ठेले पर अस्थाई हेलमेट की दुकान लगाए युवक जो सिर पर रुमाल बांधे हुए है, हाथ में हेलमेट उठा उठा कर लोगों को बड़े आत्म विश्वास से उनकी खूबियां बता रहा है।

इधर, साहेब तो कड़क मालूम पड़ते थे। लो साहेब! कहते हैं कुछ ले देकर रफा करो। ठीक ही तो कह रहें। आएं! होमगार्ड प्रश्नवाचक चिह्न सा मुस्कुराया। साहेब कड़ककर बोले, क्या हुआ? मेेरा मतलब है लाइसेंस नहीं है इनके पास। हां साहेब। चलो काटो पनसउवा का चालान। अरे सर काम से जा रहे थे। लाइसेंस और कागजात दोनों हैं, लेकिन जल्दी में घर भूल गए। मिमियाते और चापलूसी भरे लहजे में दोनों ने दरोगा साहेब से चिरौरी की। लेकिन साहेब भी कम न थे। तोंद निकला हुआ। मूछें बड़ी बड़ी और ताजा ताजा डाई की हुईं। कद ज्यादा लंबा नहीं, लेकिन डील डौल से किसी देसी पहलवान की तरह लग रहे थे। अनुभव उनके चेहरे पर साफ झलकता था। ऐसे कई आए और गए उन्होंने किसी को यूंही न बख्शा था। ठीक है 500 का चालान कटवाओ और जाओ। आगे से ऐसी गलती नहीं करना। 

अरे सर! छोड दीजिए। पैसे नहीं हैं। साहेब ने गौर से उन्हें देखा और बोला। अरे तुम लोग वही हो न जो 15 साल पहले कचहरी के पास कोचिंग करते थे। जी सर! जी सर! सर आपने कैसे पहचान लिया। अरे मैं भी तो वहां पढ़ाता था। लेकिन हमने तो आपको कभी देखा नहीं। मनोज ने सवाल करने के बाद मन ही मन सोचा कैसे झाम दे रहा है। कभी नजर तो नहीं आया। अब जो भी हो किसी तरह इस मुसीबत से छुटकारा मिले। नहीं बैठे बिठाए पनसउवा की चपत लग जाएगी। अरे हम आईएएस वालों को पढ़ाते थे। और तुम लोग एसएससी वाले बैच में थे। अच्छा सर, हां याद आया। आप आईएएस वाले बच्चों को पढ़ाते थे। विकास ने हां में हां मिलाई। अब चालान न कटने की उम्मीद बलवती होती दिखाई दी। 

तो विकास ने तारीफ की पुल बांधना शुरू किया। अरे सर आप तो बहुत अच्छा पढ़ाते थे। आपके कई स्टूडेंट तो अब सरकारी सेवा में लग गए होंगे। साहेब मन ही मन खुश हुए और इतरा भी गए। लेकिन बाहरी तौर पर कड़क दारोगा होने का सबूत दिया। अच्छा ठीक है। जाओ लेकिन अब से कभी बिना कागज या हेलमेट के नहीं निकलना। नहीं तो दुगना चालान काटूंगा। नियम तोड़ने वालों को हम छोड़ता नहीं हूं। ठीक है सर। थैंकयू। दोनों वहां से सरपट निकल लिए। और कोचिंग के दिनों को याद करते हुए बाते करने लगे। यार ये कभी दिखा तो नहीं था। अपने जमाने में।

बात तो सही है, लेकिन हम लोग ही कोचिंग कितना जाते थे। हर दिन कोई न कोई झाम दे दिया करते थे और कोचिंग गोल कर दिया करते थे। तो क्या खाक दिखेगा। दोनों मुस्कुराते हुए और मुंह में केसर उढे़लते हुए आगे बढ़ जाते हैं। भाई कुछ भी कहो मौज तो सरकारी नौकरी मा ही है। वैसे भी विकास आज तो तुमने धांसू आइडिया लगाकर चालान होने से बचा लिया। कौन सा आइडिया गुरू। वही जो तुममे कूटकूट भरी हुई है। विकास ने चैड़ियाते और गर्वान्वित होते हुए कहा, कौन सा गुरू हमको तो याद ही नहीं। चापलूसी वाली! मनोज के इस जवाब से विकास मुस्कुरा देता है और एक और केसर उढ़ेल लेता है। झेल लिए हमका भी दो जरा। जरा चुभलाएं। ऐसे बाइक चलावन में मजा नई आवत है गुरू। ये लो।

आज तो चालान से बच गए गुरू नहीं तो फर्जी में ही 5 सौ घुस जाते। ठीक ही कहते हो। तो हो जाए! क्या हो जाए? विकास ने विस्मय होकर पूछा। अरे बैठकी। नहीं यार, कल ही तो मैडम ने टेलर पिलाया है कि आज के बाद कहीं इधर उधर बैठे तो घर न अहियो। विकास भाई एक बात सच कहूं। तुम टेलर नहीं पाए हो। तुम्हारी जमकर सुताई हुई है। सैंडल, दे सैंडल। नहीं नहीं अपने जैसा समझे हो क्या। दोनों ठिठोली करते हैं और मन ही मन सोचते हैं कि खुद तो रोज सूता जाता है और हमको भी अपने जैसा ही समझता है। इसी तरह दोनों फिर से अपने काम पर पहुंचते हैं। लो भाई आ गए गुमटी नंबर पांच। पुरानी हो चुकी बाइक, जिसका साइलेंसर हिल रहा है, स्पीडो मीटर खराब है, टायर घिस चुके हैं और रिम अभी भी पहले जमाने का है, वही तीलियों वाली, को सड़क किनारे लगाते हैं। 






चल भाई विकास शाॅप खोल। काॅलेज का समय होने वाला है अब गोलेबाज और पढ़ाकू दोनो ही लौंडे आते ही होंगे। वैसे भी चालान के चक्कर देर हुई गवा है। ठीक है। विकास भी शाॅप खोलने के लिए आगे बढ़ता है। अरे मनोज टायर से हवा किसने निकाल दी। क्या? कल शाम तक तो ठीक ठाक ही था। मैंने देखा भी था। आज का दिन मनहूस लग रहा गुरू, क्या करोगे? काहें चोचलेबाजी कर रहे हो। बाइक में तो टनाटन हवा भरी है। विकास बोला अमा यार, बाइक की नहीं मेरा मतलब हमारे ठेले के टायर का। ओह साॅरी शाॅप का। अच्छा अब क्या करें? गाहकी का समय है। अब छोड़ उसे और अंगीठी सुलगा और पतीली चढ़ा। जल्दी चाय रख। नहीं तो बगल वाला अलगू चाय वाले के पास लौंडों का झुंड लग जाएगा। थोड़ी देर बाद, अरे भइया, दो कप। मलाई मार के। भाई ब्रेड मिलेगा क्या? नहीं है गुरू! आज तो पाव रोटी के साथ ही चाय पीलो। कल से मिलेगा।

दिनभर इसी तरह मनोज और विकास का दिन गुजरता है। एमए की डिग्रीधारी हैं दोनों। चाय का ठेला लगाते हैं। पर किस्मत में जो हो वही होता है। मेहनत और कोशिश तो दोनों ने बहुत की थी। लेकिन मेहनत का फल नहीं मिला। या थोड़ी और कोशिश न कर सके। क्योंकि उसर भूमि भी मेहनत करने से एक न एक दिन हरी भरी हो जाती है। खैर, उनका ही क्या? वहां पर कई तो एमबीए पास और इंजीनियर उनके बगल में समोसा और पकौड़े छान रहे हैं। उनमें खूब बनती भी है। साथ ही काॅलेज से आने वाले विद्यार्थी भी इन्हीं के यहां चाय समोसा खाना पसंद करते हैं। और कारीगरी भी सीखते रहते हैं। क्या पता कल इन्हीं के अंडर इंटर्नशिप न करनी पड़ जाए। और भविष्य किसने देखा है। क्या पता एक दिन चाय बेचते-बेचते....।


दोस्तों न ये कोई कहानी है, न कोई व्यंग। दोनो के बीच की कड़ी है। बस मनोज और विकास की बाइक यात्रा के जरिए कानपुर की बोली और भाषा को समझाने का प्रयत्न किया है। वैसे यहां की बोली आज दुनिया भर में मशहूर है। आजकल तो कई टीवी धारावाहिकों में इसका खूब इस्तेमाल हो रहा है। भाबीजी घर पर हैं। हप्पू की अलटन पलटन आदि इसके उदाहरण हैं। अक्सर कानपुर में ऐसे नए शब्दों का जन्म होता है, जो आसपास के क्षेत्रों सहित पूर्वांचल और बिहार में बोली जाने वाली भोजपुरी के बेहतरीन मिश्रण से उपजते हैं। जिनके जुबान पर चढ़ते ही नई मौज और अलग अंदाज स्वयं ही आ जाते हैं। यहां के मशहूर शब्दों का मनोज और विकास ने खूब उपयोग किया। अब इन शब्दों के क्या माने होते हैं। अब इनपर भी गौर कर लेते हैं। 

कुछ कनपुरिये शब्द और उनके अर्थ
  • चैड़ियाना-अत्यधिक तेज बनना
  • टोपा हो का बे-मूर्ख हो क्या
  • बकैती या बकैत-बढ़ चढ़कर बोलने वाला
  • बतोलेबाज-बात बनाने में माहिर
  • ढक्कन-असफल या मूर्ख
  • चिकाई-मजाक
  • भौकाल-खूब नाम होना
  • काम पैंतीस-काम पूरा होना, निपटा देना
  • कंटाप-झापड़
  • बौड़म-मूर्ख
  • धांसू-जबरदस्त 

ऐसे बहुत से शब्द हैं, जो खालिस कानपुरी हैं। कभी शहर घूमने आइएगा तो इन शब्दों का मजा लीजिएगा। जब नए नए इस शहर में आए थे तो काफी अजीब लगता था। इन शब्दों को सुनकर कई दफा तो पारा चढ़ जाता था। लेकिन धीरे-धीरे यहां की बोली में शामिल इन शब्दों से लगाव हो गया। अब तो बिना इन शब्दों का उपयोग किए कोई ओरिजनल कनपुरिया अपनी बात ही नहीं रख सकता। अउर इ लेख बहुत चउकस तो नहीं है। फिर भी काम भर का तो है ही। तो आते रहिएगा ब्लाॅग पर। मिलते हैं अगले ब्लाॅग में। 

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