लोकतंत्र क्या है? परिभाषा सहित व्याख्या

रविवार 15 सिंतबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस (International Day of Democracy 15 September 2019) है। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में इसे मनाया जाएगा और कुछ न कुछ कार्यक्रम भी आयोजित किए जाएंगे। लोकतंत्र को बढ़ावा दिया जाएगा। लेकिन क्या हम लोकतंत्र (Democracy) के बारे में पूरी तरह से जानते और समझते हैं। या सिर्फ चुनाव को ही लोकतंत्र मानकर व समझकर अपनी सारी जिम्मेदारियां निभा लेते हैं। वर्तमान दौर में बीमारी, गरीबी, भेदभाव, भीड़ हिंसा, भ्रष्टाचार, कुशासन, नकारात्मक प्रवृत्ति आदि विसंगतियां बनी हुईं हैं। आजादी के 73वें साल में भी हम इस प्रकार की परेशानियों से जूझ रहे हैं। बेरोजगारी, अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई, सांप्रदायिकता जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां लोकतंत्र को कमजोर ही बनाती हैं। क्या हमेशा ऐसा ही बना रहेगा। या इसमें बदलाव भी आएगा। जबकि लोक तंत्र की नींव ही सभी की बराबरी का दर्जा की बात पर टिकी है।

अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस के अवसर पर लोकतंत्र क्या है, इसे जानने एवं समझने का प्रयास करते हैं। क्योंकि आज भी ज्यादातर लोगों को लोकतंत्र का सही अर्थ तक नहीं पता है। वह सिर्फ रटे रटाए परिभाषाओं तक ही अटके हुए हैं। बहरहाल, लोकतंत्र को समझने से पहले हम इतिहास के कुछ पन्नों पर भी रोशनी डाल लेते हैं। जो लोकतंत्र के अर्थ को समझने में हमारी काफी मदद करेगा। तो आइए चलते हैं 300 साल ईसापूर्व के समय के युनान देश में। यहां पर एक विद्वान अरस्तु के नाम से जाने जाते हैं। वे अपने समय के बड़े विद्वान थे। अरस्तु ने अपने समय में प्रचलित राजनीतिक संरचना और जितने भी शासन के प्रकार के थे, सभी का गहरा अध्ययन किया था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अरस्तु ने अपने समय में प्रचलित लगभग 158 प्रकार के संविधानों का गहन अध्ययन किया था।

इतने संविधानों का अध्ययन करने के बाद अरस्तु ने यह निष्कर्ष निकाला कि दुनिया भर में जितने भी संविधान हैं, उन्हें सिर्फ 03 श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इसके तहत राजनीतिक व्यवस्था की तीन श्रेणियां 1-एक व्यक्ति का शासन, 2-कुछ व्यक्तियों का शासन और 3-सभी लोगों का अर्थात जनता का शासन हैं। क्या आपको पता है कि इन तीनों के अलावा अन्य कोई राजनीतिक शासन व्यवस्था आज तक दुनिया में नहीं आ पाई हैं। कोई भी 4थी राजनीतिक व्यवस्था इन तीनों के अलावा नहीं है। सैकड़ों वर्षाें से इन्हीं तीनों राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार दुनिया भर में अलग-अलग देशों में राजनीतिक व्यवस्था का संचालन होता आया है। अब जरा अरस्तु की ओर से दिए गए इन तीनों ही राजनीतिक शासन व्यवस्था को और अच्छी तरह से सझने का प्रयास करते हैं।


1-एक व्यक्ति का शासन: इसके तहत राज्य या देश को कोई एक व्यक्ति चलाता है। जिन्हे राजा कहा जाता है। राजा अच्छा हुआ और प्रजा का ध्यान रखता है तो उसे राजतंत्र कहा जाएगा। इसी प्रकार अगर राजा खराब हो और निरंकुश हो तो ऐसी स्थिति में उसे अधिनायकवाद कहा जाएगा। जहां राजा मनमानी करता है। 

2-कुछ व्यक्तियों या लोगों का शासन: ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में देश या राज्य की बागडोर वहां के कुलीन वर्ग, धनिकों, गणमान्य नागरिकों के हाथों में होती है। वहीं लोग राज्य पर शासन करते हैं।

3-सभी लोगों का अर्थात जनता का शासन: ऐसी राजनीतिक शासन व्यवस्था में सभी लोगों का शासन होता है। राज्य की सभी जनता इसमें भागीदारी करती है। इसके मुताबिक सभी लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि वह शासन में बराबर का हिस्सेदार है और वह इसमें अपना योगदान दे रहा है। अर्थात वह गर्वनेंस में हिस्सेदार है। लिए गए निर्णय में वह भी शामिल है। अर्थात उन्हीं के द्वारा कानून, नियम व प्रावधान बनाए जाते हैं। उन्हीं के द्वारा उसे लागू किया जाता है और उसी के अनुरूप न्याय की अवधारणा तय होती है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं, जहां पर जनता के हिसाब से शासन व्यवस्था चले वहां पर लोकतंत्र शासन व्यवस्था होती है।

अब ये बात गौर करने वाली है कि जिस जमाने में अरस्तु ने शासन की राजनीतिक व्यवस्था का वर्गीकरण किया था उस दौर में राज्य या देश बहुत छोटे-छोटे होते थे। इन छोटे राज्यों को पोलीस के नाम से जाना जाता था। ये नगर राज्य प्रकार के होते थे। इनकी आबादी भी 5 हजार से 10 हजार के बीच हुआ करती थी। ऐसे में लोग एक स्थान पर इक्ट्ठे होकर शासन संबंधी चर्चा कर लेते थे। साथ ही इस संबंध में एक साथ निर्णय लेकर नियम व कानून वगैरह भी बना लिया करते थे। 

अरस्तु के तीनों वर्गीकरण के अंतर्गत दो और वर्गीकरण भी किए गए। इनमें 1-प्रत्यक्ष लोकतंत्र और 2-अप्रत्यक्ष लोकतंत्र शामिल हैं। इसे विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। प्रत्यक्ष लोकतंत्र व्यवस्था के तहत राज्य में जितने भी लोग होते थे वे सभी एक स्थान पर एकत्रित होकर और समुह में बैठक कानून बनाने, लागू करने आदि के संबंध में चर्चा कर लेते थे और निर्णय करते थे। लेकिन आज के समय में ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि तब राज्यों की आबादी इतनी कम होती थी (5 हजार से 10 हजार तक) कि सभी लोग एक साथ बैठकर शासन संबंधी निर्णयों में हिस्सा ले सकते थे। वहीं आज के दौर में छोटे से गांव की आबादी भी इससे ज्यादा होती है। शहरों की बात ही छोड़िए। फिर राज्य या देश भर के लोग एक स्थान पर कैसे एकत्रित हो सकेंगे। बड़ी आबादी पर यह अवधारणा लागू नहीं होती है। ऐसे में समय के साथ साथ यह अवधारणा लगातार कमजोर होती चली गई। 

लेकिन इसको लेकर नए रास्ते भी निकाले गए। तब जनता द्वारा प्रतिनिधि चयन की बात सामने आई, और चुनाव की अवधारणा विकसित हुई। जिसे अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की संज्ञा दी गई। अप्रत्यक्ष लोकतंत्र व्यवस्था के अनुसार लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनाव के माध्यम से चयनित करने लगे और उनके जरिए शासन में हिस्सेदार बने। इस तरह से प्रतिनिधात्मक लोकतंत्र की शुरूआत हुई। इसका विकास धीरे-धीरे हुआ, जो आज तक बरकरार है। इस अवधारणा के तहत ही आज के समय में जनता अपने प्रतिनिधि के रूप में सांसद और विधायक का चयन करती है, जिसके लिए समय समय पर चुनावों का आयोजन किया जाता है। 






अबतक तो हम अरस्तु के जमाने की व्यवस्थाओं को समझ रहे थे। अब वर्तमान समय की व्यवस्था को समझने की कोशिश करते हैं। आज के दौर में किसी युवा से प्रश्न कर लिया जाए कि लोकतंत्र का क्या मतलब है तो अधिकतर तो बता नहीं सकते। जो बताते भी हैं, उनमें से ज्यादातर अब्राहम लिंकन की ओर से दिए गए लोकतंत्र की परिभाषा को सुना देते हैं। हालांकि इस परिभाषा को भी वह ठीक से शायद ही समझते होंगे। ऐसा नहीं है कि इस बारे में किसी को पता ही नहीं होता। मतलब बस इतना है कि ज्यादातर को पूरी जानकारी नहीं होती। अब्राहम लिंकन की ओर से दिए गए परिभाषा के मुताबिक लोकतंत्र ''जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है'' ("Government of the people, by the people, for the people")। अब इस परिभाषा के अर्थ को समझते हैं। इसमें दिया गया 1-of the people (जनता का) से आशय यह है कि इसमें सभी का प्रतिनिधित्व हो। अर्थात यह प्रतिनिधात्मक स्वरूप प्रदर्शित करता है। 2-by the people (जनता द्वारा) से आशय यह है कि जो भी सरकार बनेगी और जनादेश के आधार पर बनेगी। अर्थात जनता चुनाव के जरिए एमपी या एमएलए बनाएगी। इसी प्रकार 3-for the people (जनता के लिए) से आशय यह है कि जो भी सरकार बनेगी उसका एजेंडा सुशासन की होनी चाहिए। जनता के भले के लिए होना चाहिए। 

लेकिन विडंबना ये है कि आजादी के इतने वर्षाें बाद भी हम लोगों को लोकतंत्र की ठीक से समझ नहीं आ पाई है। गौरतलब है कि दुनिया भर में जितने भी विकासशील या पिछड़े हुए देश हैं, वहां पर चुनाव अर्थात इलेक्शन को लेकर जनता के बीच बड़ी उत्साह और उत्सुकता होती है। ऐसे में अधिकतर लोग यही समझ लेते हैं कि चुनाव का होना ही लोकतंत्र है। सिर्फ बार बार चुनाव होना ही अच्छा लोकतंत्र नहीं है। जबकि यहां ज्यादातर लोग ऐसी ही समझते हैं। जबकि चुनाव तो महज एक साधन ही है। 

मालूम हो कि, लोकतंत्र के तीन प्रमुख चरण होते हैं। अब इनपर भी गौर कर लेते हैं और इन्हें भी ठीक से समझने का प्रयास करते हैं। साथ ही इससे हम यह भी समझ सकते हैं कि हम लोकतंत्र को कितना समझते हैं और कितना जानते हैं। 

1-प्रक्रियात्मक लोकतंत्र (Procedural democracy)
प्रक्रियात्मक लोकतंत्र (Procedural democracy) चरण के अनुसार हम लोकतंत्र कैसे बनता है और लोकतंत्र कैसे चलता है के नियमों तक ही अपने आपको सीमति रखते हैं। इसके तहत चुनाव कैसे होगा, चुनाव में खर्च कितना होगा, ईवीएम सही है या खराब है, माॅडल कोड आफ कंडक्ट, कोड आफ कंडक्ट तोड़ने वालों पर क्या कार्रवाई होगी, हम वोट कैसे देंगे, किसको देंगे, राजनीतिक पार्टियों, राजनीतिक पार्टी को कौन सा दर्जा कैसे मिलेगा जैसी बातों तक ही अपने आप को सीमित रखते हैं। वर्तमान समय में हम इसी पहले चरण में ही उलझे रहते हैं। वोट डालने के बाद हम सबकुछ बनने वाली सरकार पर ही छोड़ देते हैं। क्या इससे ज्यादा भी आप लोकतंत्र के बारे में सोचते हैं। जवाब होगा कि नहीं। अर्थात हम वर्तमान समय में प्रक्रियात्मक लोकतंत्र को ही पूर्ण लोकतंत्र समझते हैं। जबकि यह तो पहला ही चरण है। इस स्थिति में हम चुनाव को ही लोकतंत्र की आत्मा समझते हैं।

2-विमर्शमूलक लोकतंत्र (Interactive democracy)
विमर्शमूलक लोकतंत्र (Interactive democracy) चरण में हम यह विचार विमर्श करते हैं कि चुनाव के बाद बनने वाली सरकार क्या क्या कार्य करेगी। किस प्रकार के निर्णय करेगी। इस प्रकार के अन्य कई मसलों पर हम विचार करते हैं। चाहे यह विचार हम व्यक्तिगत रूप से करें या सामूहिक रूप से सम्मिलित होकर। इस प्रकार जनता चुनाव के बाद सरकार को अपनी वैचारिक योगदान प्रदान करती है। उदाहरण के तौर पर सरकार से मांग करना, चिट्ठी लिखना, कोर्ट में पीआईएल डालना आदि कार्य इसके तहत ही आते हैं। इस प्रकार हम किसी मंत्रालय या सरकार से जनता की मंशानुसार निर्णय या नियम बनाने के लिए अपना वैचारिक योगदान प्रदान कर सकते हैं। कह सकते हैं कि इस चरण के मुताबिक जनता चुनाव में वोट देने के बाद अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं सझती बल्कि देश कैसे चलेगा, कैसा कानून बनेगा आदि पर सरकार को राय देती है।

3-जनभागीदारी मूलक लोकतंत्र (Participatory democracy)
लोकतंत्र के तीसरे चरण को जनभागीदारी मूलक लोकतंत्र (Participatory democracy) कहते हैं। इसके तहत सरकार की ओर से बनाए गए कानूनों, प्रावधानों या योजनाओं को जमीन पर लागू कराने में योगदान देने पर बल होता है। क्योंकि हमने चुनाव के जरिए अपने प्रतिनिधि  चुन लिए हैं। इसके बाद लोकतंत्र के दूसरे चरण विमर्शमूलक लोकतंत्र के तहत हम सरकार को अपनी राय दे चुके हैं। जिसके तहत सरकार की ओर से कानून एवं योजनाएं बना दी गईं हैं। लेकिन इन कानूनों, निर्णयों या योजनाओं को जमीन पर लागू कराने का कार्य ब्यूरोक्रेसी का है। अर्थात शासकीय कार्यालयों में बैठे अधिकरियों का है। लेकिन विडंबना ये है कि सरकार कानून एवं योजनाएं तो बना लेती हैं, जो जनता के मंशानुसार होती हैं, लेकिन कई बार इन्हें लागू करने वाले अधिकारी इन योजनाओं या कानूनों को अपने ढंग से परिभाषित कर लागू करते हैं। समस्या यहीं से शुरू होती है। ज्यादातर शासकीय कार्यालयों का हाल आप तो जानते ही होंगे। अब यहीं पर जनता की जिम्मेदारी होती है कि वह सरकार की ओर से बनाई गईं योजनाओं, कानूनों एवं लिए गए निर्णयों को शासकीय अधिकारियों से तालमेल बिठाकर उनकी सहायता से उसी भावना से जमीन पर लागू कराए, जिस भावना (जनता की भलाई) से ऐसा किया गया है। 






अब हम इन तीनों चरणों में अपने आपको कहां देखते हैं। जाहिर सी बात है हम पहले चरण में ही अटके हुए हैं। जो कि प्रक्रियात्मक लोकतंत्र का चरण है। सिर्फ चुनाव को ही लोकतंत्र समझने लगे हैं। या चुनाव को ही लोकतंत्र मान बैठे हैं। हम इस पर कम ही विचार करते हैं कि बजट में क्या होगा, कैसा होगा, पिछले बजट में क्या था, इसमें क्या अच्छा था क्या खराब था, पिछले बजट के प्रावधानों को आगे कैसे लागू किया जाए, या नहीं किया जाए, पैसा कहां से आया, पैसा कहां खर्च हुआ, किस प्रकार खर्च हुआ, कैसा बजट बनाया जाए, बजट में क्या प्रावधान किया जाए जैसी बातों पर हम कभी गौर ही नहीं करते, बल्कि ये सभी कार्य सरकार पर ही छोड़ देते हैं। स्थानीय सरकारों को लेकर भी हमारा यही रवैया रहता है। सब कुछ उन्हीं पर छोड़ देते हैं कि वह कैसा बजट बनाए, या निर्णय ले और लागू करे। अर्थात सिर्फ चुनाव ही लोकतंत्र नहीं है। बल्कि सलाह देने की जिम्मेदारी भी जनता की ही है। इनपर अमल होने के बाद ही पूर्ण लोकतंत्र बनता है। ऐसे में हमें लोकतंत्र के तीनों ही चरणों में अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाना चाहिए। तभी एक मजबूत और जनहितैषी लोकतंत्र  बनेगा। अर्थात यह ध्यान रखें कि सिर्फ चुनाव ही लोकतंत्र नहीं है।

इसे भी गौर करें
इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस की थीम 'जनभागीदारी' है। दुनिया भर में 15 सिंतबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र की ओर से अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस 2019 की थीम जनभागीदारी रखा गया है। इसके तहत कहा गया है कि यह याद रखने का एक अवसर है कि लोकतंत्र लोगों के बारे में है। लोकतंत्र समावेश, समानता और भागीदारी पर बनाया गया है। लोकतंत्र शांति, सतत विकास और मानवाधिकारों के लिए एक बुनियाद है। सच्चा लोकतंत्र एक दो-तरफा मार्ग है, जो नागरिक समाज और राजनीतिक वर्ग के बीच निरंतर संवाद पर बनाया गया है। इस संवाद का राजनीतिक निर्णयों पर वास्तविक प्रभाव होना चाहिए। यही कारण है कि राजनीतिक भागीदारी, नागरिक स्थान और सामाजिक संवाद सुशासन की नींव रखते हैं। यह वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के प्रभाव के साथ और भी अधिक सच है।

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