बेटियों से ही हैं सारी खुशियां

S.Khan March 03, 2017
एक कॉलेज का वर्षिक उत्सव था। वहां मैं भी आमंत्रित था। अतिथि के तौर पर नहीं, बल्कि एक रिपोर्टर के तौर पर। गीत संगीत, मिमिक्री, नाटक और अन्य कार्यक्रमों की प्रस्तुति चल रही थी। कुछ गणमान्य (नेताजी लोग) भाषण दे चुके थे। भाषणों में शिक्षा को खूब बढ़ावा दिया गया। नगर का नाम रोशन करने के लिए वहां मौजूद विद्यार्थियों से आह्वान भी काफी जोर देकर किया गया। विद्यार्थियों के लिए और शिक्षा के क्षेत्र में चल रही योजनाओं का भी खूब बखान किया गया। ये सब बातें उस कॉलेज में हो रही थीं, जहां वर्षों से प्राध्यापकों की कमी चल रही है। इस तरफ किसी का ध्यान नहीं था। फिर भाषण शब्द से ही समझ जाइए कि वहां सिर्फ भाषण ही चल रहा था।
बहरहाल, रंगगारंग कार्यक्रमों से पूर्व भी कुछ स्पर्धाएं कॉलेज में आयोजित की गई थी, जिसमें विद्यार्थियों ने बढ़चढ़ कर प्रतिभाग किया था। इसमें अर्थ व्यवस्था से लेकर सामाजिक कुरीतियों तक को दर्शाया गया था। अर्थ व्यवस्था के लिए, कई मॉडल तैयार किए गए थे, जबकि सामाजिक कुरीतियों को रंगोली के जरिए दर्शाया गया था। इसमें एक ख़ास रंगोली कन्या भ्रूण हत्या को दर्शा रही थी। विद्यर्थियों ने रंगों के माध्यम से अपने विचारों को दर्शाया था। रंगोली से जो चित्र उकेरे गए थे, उसमे एक शिशु कन्या को डस्टबिन में दिखाया गया था, जो कह रही थी ...प्लीज सेव मी..।


डस्टबिन एक पेड़ के नीचे रखा गया था। पेड़ पर एक चिड़िया का घोसला भी दिखाया गया था, जिसमें से नन्ही चिड़िया और उसकी मां डस्टबिन की तरफ देख रहीं थी। और घोसले में नन्ही चिड़िया अपनी मां से बोल रही थी कि ... अच्छा हुआ मम्मा मैं इंसानों के घर पैदा नहीं हुई..।  रंगोली बिना कुछ बोले ही हकीकत को बयां कर रही थी। आज के आधुनिक युग में भी इस तरह की कुरीतियों की पोल खोल रही थी। रंगोली बता रही थी कि, वर्तमान में भी कन्या भ्रूण हत्या जैसा गुनाह हो रहा है। इसे इसी वक्त रोका जाए। कन्या भ्रूण को दुनिया में आने से पहले ही उसकी हत्या न की जाए।

ये तो रही रंगोली की बात, विद्यार्थियों ने नाटक का मंचन करके भी इस कुरीति पर चोट की। वर्तमान में लोगों को इस सम्बन्ध में खूब जागरूक किया जा रहा है। फिर भी कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है। 08 मार्च को विश्व महिला दिवस मनाया जाता है। अक्सर कब ये दिवस आता है और कब बीत जाता है, अधिकतर को कुछ पता भी नहीं चल पाता। सामान्यतः कार्यक्रम भी भाषणबाजी और सम्मान समारोह तक ही सीमित रह जाते हैं। खैर, आज भी महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में ठीक तो नहीं ही लगती है। आज भी बड़े बड़े शहरों, यहां तक की मेट्रो सिटीज में भी महिलाएं खुद को हमेशा सुरक्षित महसूस नहीं करतीं।

आएदिन होने वाली घटनाओं से इसका आभास भी होता ही रहता है। मां की कोख से लेकर जीवन के अंतिम पड़ाव तक महिलाएं संघर्ष करतीं प्रतीत होती हैं। बराबरी का अधिकार होने के बाद भी वे अपनी आजादी से वंचित ही ज्यादा लगती हैं। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा तो दिया जा रहा है लेकिन, वर्षों से चली आ रही पुरुष प्रधानता वाली सोच ही शायद इसमें सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। लैंगिक अनुपात चिंताजनक बनी हुई है। इसमें सुधार हो रहा है, पर सुधार की रफ्तार अभी बहुत धीमा है।

अभी भी कुछ ठोस कदम की गुंजाइश बनी हुई है। किसी भी क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं। ये बात भी कबकी साबित हो चुकी है। बालिका शिक्षा का इसमें अहम योगदान रहा है। बेटियों की पढ़ाई भी बेटों की तरह ही करानी चाहिए। लेकिन अक्सर घरों में भेदभाव किए जाने की बात सामने आती हैं। इस मानसिकता को अभी से बदलना होगा। ताकि बेटियां भी अपना भविष्य संवार सकें, न की सिर्फ बेटे ही। बेटी से ही संसार है। बिना उसके सब अधूरा है। बेटी को बोझ नहीं कुदरत की सबसे बड़ी नेमत समझें।

दोस्तों, कॉलेज से लौटकर मैं ऑफिस पहुंचा। बहुत सारी प्रस्तुतियों के दृश्य जेहन में चल रहे थे। इसमें रंगोली का सन्देश सबसे खास लगा। अगर घरों में बेटियां नहीं होंगी, तो सृष्टि रहेगी क्या? खुशियां रहेंगी क्या? हम रहेंगे क्या? वक्त मिले तो जरा इस विषय पर... सोचिएगा। क्योंकि ये किसी का भाषण या स्पीच नहीं है।

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