कहानी तेरी और मेरी (शहनाई-भाग-चार)

'शहनाई'
भाग-चार
'फिर तेरा बिछड़ जाना'

रमेश जनवरी में वापस घर लौटता है। अब नीलिमा की शादी भी कुछ दिनों या महीनों बाद होनी तय थी। रमेश को इसका अंदाजा था। रमेश ने कभी ये जानने की कोशिश भी नहीं की थी। उसने अपने जानने वालों से भी इस बारे में कोई जिक्र न करने की हिदायत भी पहले ही दे दी थी। और उसने नीलिमा को भी पहले ही ये बात कह दी थी कि कभी भी अपनी शादी या इससे जुड़ी कोई बात मुझे मालूम मत पड़ने देना। निलिमा भी न जाने क्यों रमेश को ठुकराने के बाद भी उसकी हर बात सुनती थी। कुछ दिन रहने के बाद रमेश वापस लौट गया। जाते-जाते नीलिमा को बस इतना याद दिला गया था अपनी शादी का जिक्र कभी भी मत करना। शादी होने वाली भी हो तो कब, कहां, किस्से या कोई और बात कभी मुझे पता नहीं चलना चाहिए। रमेश ने नीलिमा जनवरी में आखरी बार देखा था।


'अशकों के ले के धारे
बे आस बे शहरे लो कूच कर रहे हैं
हम शहर से तुम्हारे
ये तेरा जुल्म है या, तकदीर का सितम है
कैसे तुम्हें बताएं, कितने उदास हम हैं
तूफा में घिरे हैं, मिलते नहीं किनारे
अशकों के ले के धारे
बे आस बे शहरे लो कूच कर रहे हैं
हम शहर से तुम्हारे'

रमेश के जाने के बाद न नीलिमा ने कभी रमेश को फोन किया, ना ही रमेश ने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश की। शायद रमेश जानना भी चाहता तो उसे यही बात पता चलती कि नीलिमा अब किसी और की हो चुकी है। जो रमेश के लिए दुखदायी ही साबित होता। न रमेश को पता था कि क्या हो रहा है, न ही नीलिमा रमेश के बारे में कुछ जान पा रही थी। इस दरम्यान रमेश नीलिमा को याद तो करता था, पर वह अब उससे दूर हो चुकी थी। हमेशा के लिए बिछड़ चुकी थी। रमेश नीलिमा की याद में सुधबुध खो सा बैठा था। स्वयं से ही वह रोज संघर्ष करता। सारी यादें भुलाने की कोशिश करता। साथ ही नीलिमा से जुड़ी जो भी चीज उसके पास थी उसे समेटने की कोशिश करता।






नीलिमा उसके जीवन से हमेशा के लिए जा चुकी थी, फिर भी नीलिमा के प्रति रमेश के दिल के किसी कोने में मोहब्बत छिपी ही थी। खैर, पहली बार रमेश और नीलिमा के बीच बात चीत लगभग खत्म सी हो गई थी। जहां वे हर रोज घंटों एक दूसरे से बातें किया करते थे। रमेश भी उसे एक पल के लिए भी नहीं भूलता था। अब दिन महीने बनते जा रहे थे, लेकिन दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। जनवरी बीता, फिर मार्च, अप्रैल और मई भी दुखभरी यादों के बीच बीत गए। रमेश पहली बार इतने दिनों तक घर नहीं लौटा था। शायद जानबूझकर वह नहीं लौटना चाहता था। लौटता भी तो कहां, जहां उसकी और नीलिमा की यादें भरी हुईं हैं। रमेश भी नीलिमा के बगैर जीवन की कल्पना नहीं करता था।

पर हकीकत उसके सामने थी। सो, जनवरी के बाद रमेश सीधे मई बीतने पर लौटा, लेकिन शहर नहीं, बल्कि अपने गांव। रमेश आज भी नहीं जानता कि नीलिमा की शादी कब हुई। पर इसकी कल्पना तो वह कर ही सकता था। जो उसने नहीं देखा था। उसकी कल्पना भी उसके जेहन में हरदम घूमा करती थी। रमेश सोचता करता था कि, शादी के दिन नीलिमा दुल्हन बनी होगी, बरात और बराती सब उसके घर के करीब होंगे। सब ढोल, ताशे और शहनाइयों के बीच। काश कि रमेश ने यह देखा होता, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया था। इसलिए रमेश ने शादी के जो दृश्य खुद से अपने जेहन में बनाए थे। उसके अंदर घर कर गए थे। जो उसे खूब डराती थीं। शायद यही वजह है कि रमेश शहनाइयों की धुन से घबरा उठता है।

@ सेराज खान...
(मार्च 26, 2017) (कहानी संपन्न)

नोट- ये कहानी, जिसका शीर्षक 'एक कहानी तेरी और मेरी (शहनाई)' है, काॅपीराइट एक्ट के तहत पूर्णतः सुरक्षित है। इस कहानी के किसी भी भाग का बिना इजाजत किसी भी अखबार, पत्रिका, वेबसाइट या शोशल मीडिया पर प्रकाशन मना है।

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