S.Khan February 03, 2017
वाट्सएप, फेसबुक की दुनिया में मशगूल घूमते हुए एक दिन गरीबों की बस्ती में पहुंच गया। नजारा था, ढाई मीटर की झोपड़ी और ढाई फीट के द्वार का। नजरें मोबाइल से हट गईं और झोपड़ी की तरफ टिक गईं। सोच रहा था कहीं, यह भ्रम तो नहीं। पर दृश्य हकीकत थे। मन में सोच विचार घुमडऩे लगे। खुद को धन्य महसूस किया। सोच रहा था ऐसी स्थिति से मैं दूर हूं। यकीन मानिए वह जगह पुराने जमाने के किसी कैदखाने में बने काल कोठरी की तरह महसूस हुआ। आज भी ऐसे दृश्य भला दिखते हैं। जब चांद व मंगल पर घर बनाने की बातें हो रही हैं। यहां जमीन पर ही नहीं बन पा रहे। विडंबना कहें या बदकिस्मती आज भी कइयों के जीवन अभावों में कट रहे हैं।
पन्नी की दीवारें और छत ही घर हैं। जगह किसी घूरे की तरह। सुविधा के नाम पर असुविधा। महंगे जमाने में जगह भी कहां है।
दुविधा मजबूरी बनी हुई है। आधा पेट खाकर तो कभी भूखे सोकर जिंदगी गुजरती हैै। कमजोर शरीर आवाज उठाने के भी काबिल नहीं। इनकी सुनेगा भी कौन और सुनने के लिए आगे आएगा भी कौन। इनकी बस्ती झुग्गी झोपडिय़ों और सड़ांध वाली बस्ती जो ठहरी। ऊंची इमारतों के बीच कच्ची झोपड़ी दिखती भी कहां हैं।
हवाई जहाजों से तो सिर्फ ये काले पीले धब्बे ही प्रतीत होते होंगे। तंग झोपडिय़ों से तो आंखे किसी फरिश्ते को तलाशती होंगी। जो सब अच्छा कर दे। मुश्किलें हल कर दे। पेट भरने का इंतजाम कर दे। पर फरिश्ते जहाजों में उड़ा नहीं करते। चुनाव भी नहीं लड़ते। झूठे दंभ भी नहीं भरते। गरीबों की बोझिल आंखे अरमानों को समेट लेती हैं। हर दिन किसी तरह गुजर जाता है। रोजगार और व्यापार नहीं पर इनका भी परिवार तो है। यहां बच्चे कचरे भरी जगह में खेलकर खुश होते हैं। टूटे फूटे खिलौने ही इनके हिस्से में है। शुक्र है, बच्चों के चेहरों पर मुस्कान दिखती है। लेकिन, स्कूल से अक्सर इनकी दूरी रहती है। शिक्षा, किताबें सब मुफ्त। खाना भी मुहैया होता है।
फिर भी ऐसी मजबूरी क्यों। बारिश, जेठ, सर्दी इन्हीं तंग झोपडिय़ों में गुजरती हैं। इनमें न ठीक से खड़े हो सकते हैं ना सो सकते हैं। पर रहने वालों के तो अरमान इन्ही में बसते हैं। पन्नी की झोपडिय़ों में लॉकर नहीं होते। इसलिए पहचान के दस्तावेजों को पॉलीथिन की थैली में बड़ा सहेजकर रखते हैं। जिसे दिखाकर वे अपना दुखड़ा भी रो लेते हैं। हालचाल पूछने पर तो भीड़ लग जाती है। सोचकर कि अब परेशानी दूर होगी। लोग आस लगाए जमा हो जाते हैं। पूछने वाला चला जाता है। कुछ दिन उम्मीदों के साथ बीतता है। फिर बस्ती वैसे ही जीने लगती है, जैसे पहले। जहां विकास है न विश्वास। विश्वास किस पर नहीं है। इसकी कल्पना कर ही सकते हैं।
वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर युग में अक्सर हर बात पर बहस होती दिखती है। चर्चाएं होती हैं। अच्छे बुरे परिणाम निकाले जाते हैं। वर्तमान से भविष्य तक के प्रभावों का आंकलन भी खूब होता है। राहत व बोझ पर भी विचार होते हैं। बदलाव की बात कही जाती है। फिर पन्नी की जर्जर झोपडिय़ां अबतक ऐसी ही क्यों हैं। विकास की दौड़ में इतने पीछे क्यों रह गईं। हकीकत में बदलाव की जरूरत है। सिर्फ बदलाव की बातों की नहीं। झोपडिय़ां पन्नी की न रहने पाएं। खुद भी कोशिश करनी होगी। जहाज में उडऩे वाले शायद ही इधर आएं। अभी तो उनके व्यस्तता का समय है। कभी मौका मिले तब खुलकर सवाल जवाब करिएगा। जवाब पर भरोसा भी थोड़ा हिसाब से करिएगा।
(एक बस्ती के भ्रमण के बाद)
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