दिलदार नगर का दशहरा मेला

वह बार बार अपने गमछे मे रखे दाने को मुंह में फांकता और दहिने बाएं होकर वहां से निकलने का प्रयत्न करता। उसका मुंह कभी फरूही और रहिला से खाली नहीं हो रहा था। बीच बीच में वह गुड़ की भेली को भी चाट चाट कर खा रहा था। बार बार उसे बजार तक चलने के लिए मनाने की कोशिशें की जा रही थी। लेकिन वह हम लोगों के हर तर्क को यह कहते हुए काट देता था कि ना मरदे बजारे जाइब त कूल कमवे गड़बड़ा जाई। और फिर से एक मुट्ठी फरूही चबा लेता।


@ सेराज हिंदी, 01 अक्तूबर 2019 
लइकपन (बचपने) के जमाने की बात है। स्कूल में आज दशहरा मेला (Dussehra Mela) की छुट्टी होने वाली थी। मैं बहुत खुश था। मास्टर साब कुछ मारपीट भी दें तो कबूल था। स्कूल जाने में आज कोई ज्यादा झिझक नहीं हो रही थी। कई दिनों से इसकी का तो इंतजार था। सैकड़ों सपने मेले को लेकर बुन लिए थे। यहां जाएंगे, ये करेंगे वो करेंगे, जैसी तमाम बातें पिछले एक महीने से बार बार जेहन में चल रही थीं। मन मेले को याद कर उल्लास से भर जा रहा था। दोस्तों संग मेले का लुत्फ लेने में कितना मजा आएगा। इन्हीं बातों को सोचते सोचते सुबह हो चली थी। आंखे मीसते हुए उठे। फिर स्कूल जाने की तैयारी शुरू कर दी। मुंह धोया और नाश्ते के लिए तैयार हुआ।

घर के बड़े से आंगन में बिछी एक खटिया पर बिछाए गए बिछौना को आधा मोड़कर (हटाकर) मेरे लिए नाश्ता तैयार रखा था। मकान के लिए जगह पर्याप्त थी, लेकिन अभी पूरा तैयार नहीं हुआ था। दो तरफ से सिर्फ बाउंड्रीवाॅल थी, जो लगभग पांच से छह फीट उंची होगी। बाकी के हिस्सों कमरे बने थे। सुबह सुबह धूप जल्दी आ जाती थी। इसलिए दीवार से सटाकर रखी गई खटिया पर नाश्ता करने के लिए पहुंचा। घर के छतों और बाउंड्रीवाॅल पर गांव के कउवे भी आसीन हो गए थे। जैसे कुछ बचे तो उनका भी पेट भर जाए। बार बार कांव कांव करके वे सभी एक झुंड में मेरे खटिया के पास आते और जब उनकी तरफ हाथ उठाता तो फुर्र से उड़ जाते। 

(प्रतीकात्मक फोटो)

तब लइकापन में सुबह सुबह चाय के साथ चोटी के अलावा चिन्नी का फराठा (पराठा) या भूंजल भात नाश्ते में खूब पसंद किया करते थे। आज भी वही चाय रोटी ही बना था। स्टील के बड़े कटोरे में चाय और प्लेट में दो ताजी ताजी रोटी था। थोड़ी दूरी पर ही चूल्ही जल रही थी। जिसमें लावन के रूप में गोइठा जल रहा था। चूल्ही पर एक तरफ बिना हत्थे वाला तवा और दूसरी तरफ गोल देगची रखी हुई थी, जिसमें केंवटी का दाल बन रहा था। जल्दी जल्दी चाय रोटी खाया। अब स्कूल जाने का समय करीब आ गया था। गांव के वे बच्चे जो मुझसे कुछ क्लास सीनियर थे, और पढ़ने लिखने में शायद ठीक ठाक ही थे। वे सभी दुवारा पर पहुंच चुके थे। दुवारा ठीक मेरे घर के सामने ही पड़ता था। नीम के पेड़ के पास सभी साथी अपनी अपनी साइकिल का हैंडल थामें आपस में बातचीत कर रहे थे। 

बुलावा आया कि जल्दी चलों, नहीं तो देर हो जाएगी। मैं उनमें सबसे जूनियर बच्चों की जमात में शामिल था। मेरे पास भी एक 20 इंची लाल रंग की एटलस साइकिल हुआ करती थी। जिसे बहुत ही मन से चलाया करता था। अभी नई नई ही खरीदी गई थी। उसके मेडीगाड और चैन कवर पर अभी भी प्लास्टिक की पन्नियां चिपकी हुईं थीं। कई बार कहने के बाद भी मैं उन्हें हटा नहीं रहा था। ताकि साइकिल ज्यादा दिन तक नई रहे। जबतक मेरे और मेरे साथियों के पास साइकिल नहीं थी। तबतक हम सभी लोग दिलदार नगर (Dildarnagar) में मौजूद अपने स्कूल तक पैदल ही जाया आया करते थे। इस समय तक गांव में पक्की सड़क भी नहीं बनी थी। हम सभी साथी जिनकी औसतन उम्र 10 साल से ज्यादा नहीं रही होगी, एक टोली के रूप में पैदल ही तिरछे (शाॅर्ट कट) परनही और उसरा होते हुए एसकेबीएम कालेज के बगल से होकर दिनिया मदरसा परिसर में मौजूद अपने न्यू माडल पब्लिक स्कूल में जाया करते थे। कदाचित हमारा यह स्कूल दिलदार नगर में खुलने वाला पहला अग्रेजी माध्यम का निजी स्कूल था। कुछ सालों के दौरान इस स्कूल ने पूरे क्षेत्र में एक खास ख्याति अर्जित कर ली थी। 
उस समय दिलदार नगर गाजीपुर जिले का प्रमुख कस्बा था। बहुत ज्यादा बड़ा नगर तों नहीं था। लेकिन दिल्ली हावड़ा रूप पर स्थित होने से इसकी तरक्की जिले के अन्य स्थानों की अपेक्षा थोड़ी तेजी से हो रही थी। नगर केे विकास की ओर बढ़ने की शुरूआत हो रही थी। नए नए भवन और कटरा बनने लगे थे। मोटर गाड़ी बनाने के गैराज नगर में प्रवेश करते ही दिखाई दे जाते थे, चाहे आप किसी भी दिशा से आएं। नगर के बीच में कपड़े लत्ते, मिठाई, सब्जी मंडी, किराना, बर्तन, दर्जी आदि की दुकानें प्रमुख रूप से हुआ करती थीं। ज्यादातर स्कूल सरकारी थे। हम लोग जिस स्कूल में अध्ययन करते थे, शायद वह नगर में खुलने वाला पहला अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय था। कुछ मदरसे भी थे। नगर के एक छोर पर मौजूद रेलवे स्टेशन से कई बड़े शहरों के लिए रेलगाड़ियां मिलती थीं। गाजीपुर जाने के लिए गजपुरहिया चलती थी। डीजल के अलावा भाप के रेल इंजन भी कभी कभी दिख जाते थे। स्टेशन को जंक्शन का खिताब था। नगर में छोटे मोटे दो तीन अस्पताल थे। कुछ गिनती के सरकारी बैंक खुल गए थे। आसपास के दर्जनों गांवों के लिए ये नगर प्रमुख बाजार था। यहां पर हर वर्ग के लोग निवास करते थे। ज्यादातर लोग आसपास मौजूद ग्रामीण क्षेत्रों से ही आकर यहां पर बस गए थे। यहां अधिकतर लोग व्यापार या व्यवसाय करते थे। नगर के दोनों छोर या प्रवेश द्वारों से बड़ी बड़ी दो नहरें गुजरती थी। जो नगर के आसपास मौजूद कई गांवों में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराती थीं। इससे कृषि कार्य में संपन्नता आ रही थी। 
बहरहाल, स्कूल जाते समय हम खेतों की डांड़ों (पगदंडियों) और कभी कभी कभार बीच खेत से निकला करते थे। इस दौरान कई छोटे छोटे गांव रास्ते में पड़ा करते थे। उम्र छोटी थी। बरसात के दिनों में कई जगहों पर रास्ते पानी में डूबे हुआ करते थे। खेतों से पानी निकालने या पटाने के लिए रास्तों को अक्सर काट दिया जाता था। रही सही कसर इस मौसम में बरसात पूरी कर देती थी। कच्चे और पतले पानी से भरे रास्ते में हम अपने जूते मोजे उतार कर पैंट को उपर चढ़ा लिया करते थे। घोंघा, केकड़ा और डोरहा कीरा (सांप) अक्सर हमारा रास्ता रोका करते थे। धान के पानी भरे खेतों से अक्सर डोरहवे (कीरा) अपना सिर निकालकर डाड़ों पर आराम फरमाते हुए या ढह चुकी धान, जो किसी नाव की तरह लगते थे के बीच में धूप सेंकते हुए मिला करते थे। लेकिन बचपन में हमें इतनी तो जानकारी हो गई थी कि ये ज्यादा खतरनाक नहीं होते हैं। रास्ते में पड़े ढेले फेंककर उन्हें भगा दिया करते थे। स्कूल जाते समय हम पूरी तरह से धान की खेतों के बीच से होकर गुजरा करते थे। हमारे चारों ओर कई कई किलोमीटर तक बस खेत ही खेत होते थे, जिनके 95 प्रतिशत हिस्से में सिर्फ धान की फसल ही दिखती थी। रास्ते में किसान खेतों में निराई गुड़ाई करते हुए हम सभी बच्चों को उत्सुक्ता भरी नजरों से देखा करते थे। 

इसी तरह हर दिन हम सभी बच्चों का स्कूल जाना और आना होता था। लेकिन जब हममे से कुछ सीनियर लड़कों के पास अपनी साइकिल आ गई तो, हमें अकेले जाने में थोड़ी घबराहट होती थी। इसे देखते हुए घर वालों ने भी अब मेरे लिए साइकिल खरीद दी थी। लाल रंग वाली एटलस साइकिल थी। अब काफी पुरानी हो चुकी ये साइकिल आज भी मेरे गांव में रखी हुई हैं। बिना हवा पानी के भी वो आज तक जंग रहित है। अब उससे धान गेहूं ही ज्यादा ढोया जाता है। चलाता कोई नहीं है। बहरहाल, सफेद शर्ट और नीली फुल पैंट जो कि हमारा यूनीफार्म था, पहनकर साइकिल से स्कूल जाने के लिए निकले। बस्ते को साइकिल के कैरियर में अच्छी तरह से दबा लिया था। हालांकि ये और बात है कि स्कूल पहुंचते पहुंचते कम से कम से आधा दर्जन बार बस्ता एक तरफ घिसक जाता था। कभी कभी वो कैरियर से निकलकर सड़क पर गिर भी जाता था। इसलिए पूरे रास्ते उस पर निगाह बनाकर रखनी पड़ती थी। 

मैं भी दुवारा पर पहुंच गया। मेरे पहुंचने के बाद सभी दोस्त अपनी अपनी साइकिल लेकर गांव से बाहर निकले। किसी के पास हरी 22 इंची वाली एटलस तो किसी के पास लाल रंग की। तो किसी के पास काले रंग हीरो या एवन ब्रांड की साइकिल थी। सभी लोग एक कतार में एक दूसरे के आगे पीछे होते हुए मस्तानी चाल में अपनी साइकिलों की पैंडल मार रहे थे। कभी कभी कोई लड़का पूरी रफ्तार से अपनी साइकिल भगाता तो कोई ब्रेक चेक करने के लिए बार बार अपनी साइकिल को अचानक ही रोक देता। इससे साइकिल के टायर सर्र सर्र करके सड़क पर कुछ फीट तक घिसट जाते थे। साइकिल चलाने वाला भी ब्रेक के तगड़ा होने पर सहर्ष कह उठता था कि, देख.ल न, बिरेकवा एकदम चकाचक बा...। इस कार्य में सभी को बड़ा मजा आता था। 

आज स्कूल जाते समय आज अन्य दिनों की तुलना में ज्यादा खुशी हो रही थी। उस जमाने में मास्टर साब लोग विद्यार्थियों को बात बात पर मारने पीटने में बड़ा माहिर हुआ करते थे। छोटी छोटी गलती पर भी खींचकर झापड़ रसीद कर दिया करते थे। या छड़ी से धुनाई कुटाई कर देते थे। मुझे तो ये सरासर ज्यादती लगती थी। मास्टर साहब लोगों के इस बढ़प्पन से नन्हे मुन्ने सहमे रहते थे। अबके जमाने ऐसा कोई करता तो शायद उसे हवालात तक जाना पड़ जाए। स्कूल में मिले होमवर्क को करने में हमेशा की तरह आज भी ढिलाई बरती थी। कभी भी कोई रफ या फेयर काॅपी आजतक पूरी भरी नहीं थी। भले ही फट जाने पर दूसरी नई काॅपी खरीद ली हो। लेकिन आज मन में मास्टर साब द्वारा पिटाई हो जाने का कोई खास डर नहीं था। इसके बजाए दशहरा मेले के लिए होने वाली दस दिन की छुट्टी की खुशी ज्यादा थी। 

साइकिल पर सवार होकर हम स्कूली बच्चे चि़तरकोनी रोड, जो कि उस समय तक कच्चा ही था और इसे हम लोग कच्ची सड़क ही कहा करते थे, से होते हुए सरैला रोड पर पहुंचते थे। ये सड़क हम लोगों को सीधे दिलदार नगर (Dildar Nagar) की चट्टी तक पहुंचा देती थी। जहां एक छोटा मोटा चैराहा हुआ करता था और कई गांवों की सवारी गाड़ियां वहां पर ठहरती थी। नगर के प्रमुख वाहन स्टैंडों में इस स्थान की गिनती थी। यहां पहुंचने के बाद हम लोग खजुरी और उसियां जाने वाले रोड पर मुड़ जाते थे। ये सड़क नहर के ठीक बगल में ही बनाई गई थी, जो खेतों से दस से पंद्रह फीट उंचाई पर थी। टूटी फूटी सड़क, जिसकी पिच कई जगहों पर उखड़ी हुई थी और गिट्टियां बिखरने लगी थीं, पर उस समय साफ सफाई का अभाव मिलता था। क्योंकि स्वच्छता अभियान और हर घर शौचालय पर कोई जोर नहीं था। 

सड़क के किनारों पर चलना मुश्किल होता था। साइकिल के टायरों को बड़ा बचा बचाकर निकते थे। बड़ी तेजी से हम लोग इस सड़क को पार करते हुए सीधे दीनिया मदरसा परिसर में पहुंच जाते थे। इसी परिसर में हमारा एक लंबे ब्लाॅक के रूप में दो मंजिला स्कूल हुआ करता था। स्कूल का भवन नया नया लगता था। प्लास्टर हो चुका था, लेकिन रंगाई पुताई नहीं हुई थी। इसके चारों ओर शीशम के पेड़ लगाए गए थे। जो हम लोगों को किसी जंगल से कम प्रतीत नहीं होते थे। हरे भरे पेड़ों के बीच स्कूल के आसपास उस समय तक कोई खास आबादी नहीं बसी थी। इस लिए पेड़ पौधों की भरमार थी और पेड़ों के बाद हरे भरे खेत शुरू हो जाते थे। इससे कुछ दूरी पर ही बालकों के लिए एसकेबीएम इंटर काॅलेज था। जो उस समय का नामी स्कूल था। 

हम सभी लोग अपने स्कूल पहुंचे। कक्षाएं लगनी शुरू हो गई। क्लास टीचर ने दशहरे की छुट्टी की घोषणा की। इसपर मैं मन ही मन बहुत खुश हुआ। लेकिन अपनी जज्बातों को जुबान पर न आने दिया, ताकि माट साहब इसे समझ न जाएं। और ये सोचकर कुटाई न कर दें कि होमवर्क तो करना नहीं है और छुट्टी की खबर पाकर चहकने लगे बदमाश। जो भी हो, दोपहर बाद जैसे ही स्कूल की छुट्टी हुई हम सभी लोग बड़े ही उत्साह के साथ गांव लौटने के लिए निकल पड़े। आज साइकिल चलाने में कोई थकान महसूस नहीं हो रही थी। मन में मेले का उमंग था। कभी जोश में आकर साइकिल की रफ्तार बढ़ा देते थे। कभी साइकिल को हैंडल को दाएं बाएं मोड़ने लगते थे। गांव के रास्ते में पड़ने वाली नहर के साथ साथ होकर गुजरने वाली चितरकोनी रोड, जो बेहद खराब हुआ करती थी, के किनारों पर ही लोग अपनी साइकिल को चलाना पसंद करते थे। अभी ये सड़क पर पूरी तरह से नहीं बनी थी। 






लगातार साइकिल चलाने से सड़क के किनारों पर मिट्टी बिलकुल सपाट हो गई थी, जिनके अगल बगल घांस फूंस जमे होते थे। इससे पतले पतले रास्ते बन गए थे, जो काफी प्लेन हुआ करते थे। इस पर साइकिल चलाने में शायद ही किसी को थकान महसूस होती थी। स्कूल में छुट्टी बोल दी गई थी। वो भी पूरे दस दिनों की। ये सोच सोच कर और भी मजा आ रहा था। नहर के किनारे बनी सड़क पर कभी तेज तो कभी धीरे धीरे साइकिल चलाते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। कभी कभी मेरी साइकिल तुफान से बातें करने लगती। तो कभी दोस्तों को पीछे छोड़ते हुए खूब दूर जाकर थोड़ी देर रुकता और मित्रों के भी आने का इंतजार करता। मेरे मित्रों में से कई मेरे पड़ोसी ही थे, जो चचेरे भाई और चचा ही लगा करते थे। बड़े होने के नाते स्कूल जाते और आते समय मैं उनकी सरपरस्ती में था, और मैं उनकी ही निगरानी में रहा करता था। पर उम्र में ज्यादा अंतर नहीं होने से कभी कभार उनकी बातों को टाल भी दिया करते थे, जिसपर वे भी अक्सर झल्ला जाया करते थे। 

दशहरा का मेला बरसात के अंतिम दिनों में ही लगता था। इसलिए रास्तों पर अक्सर पानी भी भरा रहता था। खेतों में पानी देन या निकालने के लिए तब सड़क को बीच से खोद दिया जाता था। इसलिए धीरे धीरे वहां पर गड्ढा बन जाता था। इन गड्ढों में कई कई महीनों तक पानी जमा रहता था। इन्हें पार करना एवरेस्ट फतेह करने जैसा हुआ करता था। अक्सर बीच में जाते जाते हमें अपने पैर पानी में उतारने को मजबूर होना पड़ता था। इससे हमारे जूते मोजे भीग जाया करते थे। तब बड़ा गुस्सा आता था। कई दफा सड़क पर पानी भरे गड्ढों में साइकिल के कैरियर पर रखा हमारा स्कूली बस्ता भी गिर जाया करता था। तब वहीं पर रुककर नहर के किनारे उंचे डांड़े पर सभी किताबों को निकालकर धूप में सूखाने के लिए खोल खोल कर पसार दिया करते थे। 

बहरहाल, कई गांवों और सड़कों को पार करते हुए अब हम अपने गांव पहुंच चुके थे। घर पहुंचते ही साइकिल को दीवार के सहारे खड़ा कर बस्ते को घर में रख दिया। तुरंत यूनीफार्म चेंज किया और खाना खाने बैठ गए। छुट्टी की खुशी धीरे धीरे उल्लास बदल गई थी। खाने में जी नहीं लगता था। जल्दी जल्दी खाना खाकर घर से निकले। मित्रों की टोली वहां पहले से ही मौजूद थी। मैं भी जाकर टोली में शामिल हो गया। मि़त्रों में कुछ तो स्कूली साथी थे और कुछ जो गांव के ही थे या दूसरे स्कूलों में पढ़ा करते थे, शामिल थे। फिर मेले को लेकर प्लानिंग और तैयारियां शुरू हो जाती थी। हम सभी दुवारा पर नीम के पेड़ के नीचे झुंड लगाकर खड़े थे। कोई हाफ पैंट पहने है तो कोई लुंगी बांधे हुए है। कई तो उसी तरह यूनीफार्म में ही वहां मौजूद थे। सभी लोग मेले को लेकर बड़े उत्साह से राय शुमारी कर रहे थे।  

कई दिनों पहले से ही इस विषय पर हमारे बीच गहन चर्चा शुरू हो जाती थी, लेकिन हर दिन नए सिरे से प्लानिंग की जाती। कोई कुछ राय देता तो कोई कुछ। कोई सुबह घर से जल्दी निकलने पर जोर देता, तो कोई देर रात तक मेला देखने की सलाह देता। सभी की अपनी अपनी सोच और सलाह थी। कई मित्र ऐसे भी थे, जिनके सिर पर बैल गोरू को चारा पानी देने के साथ साथ दूध दूहने की भी जिम्मेदारी हुआ करती थी। वे सभी मेले में जल्दी चलने और जल्दी घर लौटने की बात पर जोर दे रहे थे। शाम तक सभी प्लांनिग पूरी कर ली गई। सुबह जल्दी घर से निकलने की बात पर मुहर लगाई गई थी। सुबह दिलदारनगर का दशहरा मेला देखने जाना है। पूरी रात मेले के सपनों में खोए रहते थे। इससे रात लंबी हो जाती थी, लेकिन सुबह तो होना ही होता था। 

वहीं, मेले के कई दिनों पूर्व से ही करमनासा नदी के किनारे बसे मेरे गांव में इसकी झलक दिखाई देने लगती थी। घूरा और चंदरीका की दुकानों पर मेले से जुड़ी तमाम सामग्री बिकनी शुरू हो जाती थी। मिठाई से लेकर मिट्टी के खिलौने तक। ये दुकानें गांव के बीचों बीच हुआ करती थीं। हम लोग भी यहां दिनभर में कई कई बार पहुंच जाते थे। सभी को दुकानों पर मौजूद खिलौने खरीदने से ज्यादा उन्हें देखने में दिलचश्ची हुआ करती थी। कभी कभार जेब में कहीं से पैसा आ जाया करता था तो खिलौनों को खरीद भी लिया करते थे। लेकिन बजार (दिलदार नगर मेला) से ही खिलौने खरीदगें, ये सोचकर हम ऐसा कम ही किया करते थे। दुकानों में बोरी में भरकर रखी गईं कुछ ऐसी मिठाइयां भी तब मिला करती थी, जो हूबहु किसी खिलौने की नकल हुआ करती थीं। इनमें दवात, कटोरा, लोटा, ओखरी (ओखली)  गुड्डे गुड़िया, बानर, शेर, हाथी आदि की प्रतिकृति शामिल हुआ करती थीं। 

दुकानों में कम जगह के चलते दुकानदार अक्सर इन्हें दरवाजे के पास ही रख दिया करते थे। ऐसे में ये सीधे ही हमारे नजरों में आ जाते थे। ये वो खिलौने थे, जिन्हें खा भी सकते थे। हम खाने लायक मीठे खिलौनों को ललच कर खरीद ही लिया करते थे। फिर एक ही मिठाई को इतनी देर तक चलाते थे कि, वह पिघलने लगती थी। इसके बाद उन्हें हजम कर लिया करते थे। इसी तरह गांव की दुकानों पर मिट्टी का जाता, चूल्ही, ओखरी भी बिका करती थीं। लेकिन हम इन्हें यहां पर नहीं खरीदते थे। हां, गांव के बच्चे जिनकी उम्र काफी कम हुआ करती थी, वे लोग इन्हें बड़े चाव से खरीदते थे और घरों के बाहर सजाकर रखते थे। टाट, बोरा, पुराना बिछौना, चद्दर आदि बिछाकर इन खिलौनों को सजाया करते थे और उससे खेला करते थे। वहीं, हम लोग अब खुद को इनसे बड़े समझने लगे थे। हमें अब मित्रों के साथ बजार जाकर मेला देखने का मौलिक अधिकार मिल चुका था। इसलिए अब हम तो बजार से ही खिलौने खरीदेंगे, ये बात सोचते थे। 

खैर, अगले दिन का इंतजार था। सूरज निकला और उसकी सुनहरी किरणों ने हमारी नींद को भगा दिया। सुबह हुई। मित्रों की टोली फिर से इकट्ठी हुई और पिछली शाम को बनाई गई प्लानिंग पर अंतिम मुहर लगी। जल्दी जल्दी सभी लोग अब मेला देखने के लिए निकलने पर जोर देने लगे। अभी सुबह हुए ज्यादा देर नहीं हुई थी। लगभग सात या आठ बजे रहे होंगे। लेकिन सभी को दशहरा मेला देखने के लिए दिलदार नगर पहुंचने की खलबली मची हुई थी। हालांकि बजार में मेले का असली रंग शाम के बाद से ही चढ़ता था। फिर क्यों हम लोग इतनी सुबह सुबह मेला देखने के लिए तैयारी करने लगे थे। इसका जवाब था कि शाम होने से पहले तक हम बजार पहुंचकर सनीमा देखने की हसरत को पूरी कर सकें। 

उस समय तक सनीमा देखने के लिए यही एक मौका था, जब हमारे घर में कोई रोक टोक नहीं करता था। वरना घर पर सनीमा देखने, वो भी किसी टाॅकीज में जाकर, की बात सुनकर ही डांट पड़नी शुरू हो जाया करती थी। इस विषय पर कभी और चर्चा करेंगे। हम सभी लोग अपने अपने घरों में लौट गए और मेला देखने जाने के लिए तैयारियां शुरू कर दी। मित्रों ने तय कर रखा था कि साढ़े नौ बजे से पहले पहले हम सभी को घर से निकल जाना है। ऐसे में अब तैयार होने में कम ही समय बचा था। मेले के दिन हम लोग नए कपड़े पहनकर बनठन कर पहुंचते थे। उस समय नए कपड़े से आशय बस यही था कि जो कपड़ा ईद में खरीदी या सिलवाई गई हो। उसे ही हम साल भर नया कपड़ा समझा करते थे। कहीं मेहमानी में आने जाने के दौरान उन कपड़ों को पहनने दिया जाता था। ऐसे हम स्कूली यूनीफार्म में ही अपना दिन गुजार लिया करते थे। बक्से से नया कपड़ा निकलता था। बड़े उमंग के साथ हम तैयार होते थे। जूते मोजे पहनते थे। पैंट, शर्ट, जूता, बेल्ट ये चार चीजें ही हमारे लिए फैशन के प्रमुख संसाधन थे। 

तब सबसे बड़ी चीज ये थी कि मेला घूमने के लिए कुछ जेब खर्च का मिलना। सभी को आसानी से मेला घूमने के लिए पर्याप्त रकम नहीं मिला करती थी। लेकिन पिता जी सरकारी नौकर थे। और दशहरे की छुट्टियों में वह अकसर गांव आया करते थे। ऐसे में मुझे मेला घूमने के लिए रकम जुटाने में कभी कोई खास दिक्कत नहीं होती थी। घर के अन्य लोग भी कुछ न कुछ पैसा दे ही दिया करते थे। लेकिन पिता जी सबसे ज्यादा। थोड़े बुहत पैसे हम मेले के नाम पर पहले से बचा लिया करते थे। ये वही पैसे हुआ करते थे, जो हमें स्कूल जाते समय मिला करते थे, ताकि लंच के समय कुछ खा लिया करें। 

लेकिन मेला जब करीब होता तो हम लोग इसे बचाने पर जोर देना शुरू कर देते थे। इस बचत से हम लोग दस से पंद्रह रुपए तक जमा कर लेते थे। कुल मिलाकर मेरे पास मेला देखने के लिए 80 से 90 रुपए तक हो जाते थे। इस बार भी मुझे घर से लगभग इतने ही रुपए मेला देखने के निए मिले थे। सब नोट दस दस के थे। एकदम कड़क। उसे बार बार गिनना और एक साथ तह करके पैंट की चोर पाकिट में छिपाकर रख लिया जाता था। पैसों को फिर से बार बार निकालकर गिनना आदतों में शुमार था। वहीं, कई ऐसे मित्र भी थे, जिन्होंने घर का अनाज वगैरह बेचकर अपने पास मेला देखने के लिए पैसे का इंतजाम किया था। हम सभी लोग साढ़े नौ बजे तक घर से मेला देखने के लिए निकल गए।  






गांव के बाहर खेत शुरू हो जाते थे। जिनमे धाम की फसल लहलहाती थी। बरसात का मौसम होने के चलते जमीन पर कभी धूप और कभी छाह हो रहा था। गांव में बजार जाने के लिए सवारी वाहन के रूप में टेंपू और जीप चला करते थे। हम सभी लोग पंचायत भवन के पास मौजूद चट्टी पर पहुंच गए थे। हम सब अब टेंपू या जीप की आस लगा रहे थे। कोई टेंपू मिले तो उसमें बैठकर आराम से बजार पहुंच जाएं। कई टेंपू और जीप वहां खड़े भी थे। लेकिन मेले के दिन सभी चालक भी छुट्टी मना रहे थे। कोई भी टेंपू या जीप नहीं चल रही थी। नए नए कपड़े पहने सभी मित्र अपने में से सीनियर की तरफ आशा भरी नजरों से बार बार ताक रहे थे। मानो कह रहे हों कोई तो इंतजाम करो। ताकि हम लोग जल्द से जल्द बजार पहुंचे। कहीं ऐसा न हो कि शो का टाइम निकल जाए तब हम पहुंचे। फिर क्या फायदा होगा? क्योंकि हमें दो दो शो देखने होते थे। पिक्चर किस हीरो की है। चाहे वो धरमेन्दरा, जितेन्दरा, गोबिन्दा, सनी देवला, रीसी कपूर, सुनील सेठिया, अछय कुमरा, सरुखा, सलमान खान, मिथुना कोई भी हो। हमें इससे कोई खास मतलब नहीं रहता था। बस सनीमा देखना ही हमारा मूल मकसद था। कभी कभी भाग्य से अजय देवगड़ (अजय देवगन) की फिलिम लगी होती थी तो, मानों मन की मुराद पूरी हो गई हो। 

आज चट्टी पर इंतजार करते करते काफी देर हो रही थी। जब सवारी गाड़ी मिलने की कोई उम्ममीद नजर नहीं आई और नद्दी से बालू भरकर ले जाने वाला कोई ट्रैक्टर भी नहीं दिखाई पड़ा। तब जुगाड़ लगाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए गए। अब किसी ऐसे चालक को ढूंढा जा रहा था, जो हमें बजार तक पहुंचा दे। लेकिन वहां सड़क पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर एक कतार से खड़े पुराने टेंपू और भकड़ल डग्गामार पुरानी महिंद्रा की जीप में कोई भी चालक नजर नहीं आ रहा था। 

इनके ईद गिर्द सवारियां थी, जिनमें कई औरतें डोलची को जमीन पर रखकर बच्चों के साथ मौजूद थीं। कोई खड़ी थी तो कोई जमीन पर बैठी हुई। उनके आसपास उनके दो-दो तीन-तीन साल के बच्चे खेल रहे थे। नन्हे मुन्नों को कोई चिंता नहीं थी। वे एक दूसरे के साथ खेलने कूदने में मस्त थे। बच्चे अपने नए नए कपड़ों को धूल से गंदा कर रहे थे। इसपर उनकी माताएं रह रह कर उन्हें डांट पिला रही थीं। इसी तरह पुरुष सवारियों में से कोई सिर पर गमछा डाले, पीला, सफेद मटमैला कुर्ता लुंगी, प्लास्टिक का जूता पहने अपनी बांस की पीली पीली लाठी जमीन पर टिकाए खड़ा चारो ओर नजर दौड़ाते हुए टेंपू जीप की राह तांक रहा था। तो कोई तमाखू रगड़ते, बीड़ी पीते हुए, परेशान हो रहा था। कई तो सवारी गाड़ी नहीं मिलने पर पैदल ही बजार के लिए रवाना हो जा रहे थे। वहीं, सवारी ढोने वाले सभी पाइलट लोग जीप टेंपू छोड़कर वहां से नदारद थे। हम सभी भी उन्हीं सवारियों में शामिल थे। सभी लोग चट्टी पर मौजूद एक बूढ़े हो चुके बीजू आम के पेड़ की छांह में खड़े थे। 

ठीक उसी समय सौभाग्य से एक युवा आता दिखाई पड़ा। जो हमारे बीच का ही था, लेकिन उम्र में हमसे बड़ा था। वह अभी नया नया टेंपू चलाने सीखा था। वह भी सवारियां ढोता था। लुंगी और टीशर्ट पहने था। कंधे पर टंगे उज्जर गमछा के एक सिरे पर गठरी के रूप में रखा फरूही और रहिला का दाना चबाते हुए नंबे पांव हमारी ओर चला आ रहा था। उसकी नजर गमछे में रखे अपने दानों पर ही ज्यादा टिक रही थीं। रंग गेहुंआ था, लेकिन गांव की धूप ने उसे सांवला बना दिया था। आंखे धंसी धंसी और कठोर सूरत वाला वह युवा देखने में बलशाली नजर आता था। थोड़ी थोड़ी देर में वह दाने के साथ रखी हुई गुड़ की आधा पाव की भेली को बार-बार ढूंढ रहा था, जो कि दाने में कहीं ढक गई थी। 

अब तुरंत उससे चर्चा कर उसे मनाने की जरूरत थी। उसके पास आते ही हमारे सीनियर्स अपनी प्रतिभा दिखाते हुए उससे बजार तक टेंपू से छोड़ने के लिए मनौनी करने लगे। लेकिन वह मान नहीं रहा था। बार बार अपने गमछे मे रखे दाने को मुंह में फांकता और दहिने बाएं होकर वहां से निकलने का प्रयत्न करता। उसका मुंह कभी फरूही और रहिला से खाली नहीं हो रहा था। बीच बीच में वह गुड़ की भेली को भी चाट चाट कर खा रहा था। बार बार उसे बजार तक चलने के लिए मनाने की कोशिशें की जा रही थी। लेकिन वह हम लोगों के हर तर्क को यह कहते हुए काट देता था कि ना मरदे बजारे जाइब त कूल कमवे गड़बड़ा जाई। और फिर से एक मुट्ठी फरूही चबा लेता। लेकिन हम लोग भी इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं थी। अब उसे सामान्य से ज्यादा रकम सौंपने की बात हुई। इसपर वह अपनी शर्ताें के अनुसार पूरी रौब जमाते हुए तैयार हो गया। शो का टाइम निकला जा रहा था। उसके मानने पर सभी मित्रों ने राहत की सांस ली। सभी ने मिलकर चंदा किया और एक मुश्त रकम टेंपू चलाने वाले उस युवा के हांथों में सौंप दिया गया। 

कम जगह होने के बाद भी हम सभी लोग एक साथ पुरानी हो चुकी जर्जर टेंपू में किसी तरह से समा गए। टेंपू शायद अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर थी। काले रंग की टेंपू थी। जिसके रंग अब उड़ चुके थे। उपर का पीला और काला पर्दा जगह जगह से फटा हुआ था। टेंपू के फटे पर्दे के पास लोहे के पाइप दूर से ही दिख रहे थे। साइलेंसर के साथ साथ सीट के नीचे से भी रह रह कर हल्का हल्का धुआं निकल रहा था। चालक की सीट और पिछली सीट के बीच में एक पतली लकड़ी की सीट और लगा दिया गया था। जो एक तरफ ज्यादा ही झुकी हुई थी। अर्थात टेढ़ी हो चुकी थी। चालक की सीट भी खुद ब खुद दहिने बाएं बार बार सरक रही थी। जिसे बार बार उठ उठ कर बीच में करना पड़ रहा था। घिसे हुए टेंपू के टायरों के किनारों पर पीली मिट्टी की सूख चुकी परत जमी हुई थी। अगले टायर का मेडीगार्ड तो था ही नहीं। सड़क के जबाए दूसरी दिशा में ताक रही टेंपू की गोल हेड लाइट का शीशा भी फूटा हुआ था। ये टेंपू किसी गिद्ध से कम नहीं लग रहा था। ब्रेक को बार बार दबाने के बाद ही वह रुकती थी। 

थोड़ा संभल संभल कर सभी लोग उसमें बैठे हुए थे। ग्रीस और मोबील कब कहां से हाथों में लग जा रहा था इसका पता ही नहीं चल रहा था। कपड़ों को इनसे बचा बचा कर रास्ता काट रहे थे। टेंपू हरे भरे खेतों और आम के बाग बगीचों के बीच से होते हुए पतली सी नहर के किनारे बनी बिलकुल उधड़ चुकी सड़क पर धीमी रफ्तार से बजार की ओर चली जा रही थी। रास्ते में जहां जहां कोई उतार चढ़ाव, पानी भरे गड्ढे या कोई पुल पुलिया पड़ते थे, वहां हम लोगों की जान सूख जाती थी। ऐसा मालूम पड़ता कि टेंपू अब पलटी कि तब पलटी लेकिन, चालक काफी निपुण साबित हो रहा था। अब समझ आ रहा था चालक बेवजह बजार चलने से मना क्यों कर रहा था। सड़क पर मौजूद कीचड़, पानी, उखड़ती गिट्टी और मिट्टी से बुढ़िया टेंपू जीतते जा रही थी और धक धक करते हुए आगे बढ़ रही थी।  

बजार जैसे जैसे करीब आता हमारा उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। लगभग तीस से चालीस मिनट में हम लोग बजार की चट्टी पर पहुंच गए। टेंपू चला रहा मित्र भी अब इससे आगे न जाने की बात कहने लगा। और वहां उतर कर फिर से गमछे मे रखा फरूही और रहिला चबाते हुए टेंपू का अवलोकन करने लगा। वह टेंपू के चारों ओर घूमते हुए टायरों को लात से ठोक ठोक कर उसकी स्थिति देखता था। वह अपने ही धुन में मगन सा प्रतीत हो रहा था। खैर, हम सभी लोग वहीं पर टेंपू से उतर गए। अपने गंतव्य के रास्ते और आसपास के दृश्यों पर नजर फेरते हुए सभी ने अपने पैंट शर्ट को फिर से व्यवस्थित किया। अब बजार में लोगों के पहुंचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। जहां पर हम टेंपू से उतरे थे, वह जगह मेला स्थल से लगभग डेढ़ दो किलो मीटर दूर था। लेकिन हमें मेला देखने से पहले सनीमा देखना था। फिर क्या था? किसी ने कहा कि चलो कमसार टाॅकीज चलते हैं, तो किसी ने कहा कि नहीं कुमार टाॅकीज चलते हैं। दोनों ही जगहों पर दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ती थी। इस बात का अंदाजा हमें पहले से ही था। लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए हम उसी टाॅकीज का चयन करते थे, जहां पर शो शुरू होने से पहले पहुंचा जा सके। अंत में सभी ने कुमार टाॅकीज चलने का निर्णय लिया। हम लोग तेजी से पिक्चर हाॅल की तरफ बढ़ चले। 

रास्ते में व्यापारी अपनी दुकानों को सजाते हुए दिखाई दे रहे थे। सड़क के दोनों किनारों पर दुकानें लगाई जा रही थी। दुकानों को रंग बिरंगे रोशनी से सजाया जा रहा था। कोई घर धुल रहा था तो कोई पोछा लगा रहा था। सड़क पर चैकी लगाकर मिठाई सरियाई जा रही थी। खिलौने, पकवान की दुकानें भी अब लगनी शुरू हो चुकी थी। हम सभी लोग इन दृश्यों को नजरों में बसाते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे। बड़ा ही गजब का उत्साह हम लोगों में भरा हुआ था। तेजी से चलने के कारण हमारी सांसे भी तेज गति से चल रही थीं, दिल भी खूब धड़क रहा था। पैदल चलने से हमारे स्कूल वाले काले जूतों पर धूल की परत चढ़ गई थी। बरासत का सीजन होने के चलते हम सभी अब पसीने में भीगते जा रहे थे। लेकिन शो शुरू होने में कम ही समय बचा था। ऐसे में हम क्या कर सकते थे। सभी मित्र कुमार टाकीज जाने के लिए मूल रास्ते से न जाकर शाॅर्ट कट रास्ते से जा रहे थे। जब हम टाकीज के करीब पहुंचे और उसका एक हिस्सा दिखाई पड़ने लगा तो हमारी नजर सड़क पर कम और टाकीज के भवन पर ज्यादा ठहर रही थी। आखिरकार हम सभी लोग वहां तक पहुंच गए। 

कुमार टाकीज के मुख्य गेट के पास भयंकर भीड़ थी। वहीं पर टिकट काटा जा रहा था। टाॅकीज के सामने कटरा बने हुए थे, जिनमें लगने वाली दर्जी, थमसप, सोनार, गाने के कैसेट, सैलून आदि की दुकानें खुल चुकी थीं। हम सब लोग वहीं खड़े हो गए। हाल की सामने वाली मुख्य दीवार के बीचो बीच लगे अजय देवगन स्टारर विजय पथ फिल्म के पोस्टर को निहारने लगे। पोस्टर देखते हुए टिकट के लिए तुरंत एक हाथ में पैसा जमा किया गया। तब टिकट 6 रुपए से 12 रुपए तक में मिलते थे। 16 रुपए में बालकनी की टिकट मिला करती थी। भीड़ को देखकर हम कह रहे थे कि कोई भी टिकट मिल जाए। लेकिन मिल जाए। सबका ध्यान इसी बात पर था। क्योंकि फिल्म देखने वालों की इतनी भीड़ लगी थी कि क्या कहने। अपनों में से किसी मजबूत और एक्पर्ट को यह जिम्मेदारी दे दी गई। मैं और मेरे कुछ दोस्त जो छोटे छोटे थे निश्चिंत भाव से खड़े थे। टिकट की खिड़की में एक छोटा सी जगह थी। उसी से टिकट दिया जा रहा था। 






लेकिन वहां तक पहुंचना कोई आम बात नहीं थी। वहां तक पहुंचने के लिए काफी जंग करनी पड़ रही थी। टिकट खिड़की के आसपास करीब डेढ़ दो सौ लोगों की भीड़ थी। पुरानी परंपरा के अनुसार ही टिकट बिक रही थी। कोई कतार लगाकर टिकट नहीं खरीद रहा था। इससे टिकट खिड़की भी नजर नहीं आ रही थी। मुख्य गेट से लेकर टिकट खिड़की तक पूरा हुजूम ही उमड़ा हुआ था। कोई खिड़की के पास मौजूद छज्जा पकड़कर वहां तक पहुंच रहा था। तो कोई एक दूसरे के उपर से गुजर रहा था। कई लोग तो खिड़की का ग्रिल पकड़कर किसी बानर की तरह झूलते हुए टिकट कटा रहे थे। कोई, खिड़की को पकड़कर अपने को उसके करीब खींचकर लिए जा रहा था। धक्का मुक्की की कोई कमी नहीं हो रही थी। टिकट कटाने वाले पूरी तरह से घिस पिसकर पसीने से तर होकर वापस लौट रहे थे। उनके हाथ में टिकट और पैसा बिलकुल मुड़ तुड़ कर सिकुड़ जाते थे। लेकिन फिल्म देखने का इतना उत्साह था कि यह भीड़ भी किसी के हौसले को पस्त नहीं कर पा रही थी।  

हम लोग उस मित्र पर नजर गड़ाए हुए थे, जो टिकट कटाने के लिए इस भीड़ में कूद पड़ा था। वो कभी हम लोगों को देखता और कभी मुस्कुराते हुए अपने आस जमा भीड़ को। चिल्लाते गाते बजाते वो धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। हाथों में पैसों को इस तरह से पकड़ा था, जैसे गहरी नदी को पार करते समय कोई व्यक्ति अपने उतारे गए कपड़ों को भीगने से बचाने के लिए हाथ को उपर किए हुए हो। सिर पर गमछा बांधे हमारा मित्र, जो सरकारी स्कूल में पढ़ता था, अपनी इस प्रतिभा का लोहा मनवा लेना चाहता था। हाल ही में उसने अपना सिर मुंडवाया था। सिर पर अभी हल्के फुल्के ही बाल आए थे। वह भयंकर भीड़ को चीरते हुए किसी तरह से टिकट की खिड़की तक पहुंच गया। लोहे की ग्रिल से बनाई गई टिकट खिड़की में एकदम नीचे एक छोटा सा 6 बाई 6 इंच का छेद था। इस छेद में एक साथ कई कई हाथ अंदर डाले जा रहे थे। किसी का हाथ फंस रहा था तो किसी का छिल जा रहा था। किसी की घड़ी खुलकर गिर जा रही थी। तो किसी का सिक्का रुपया। हमारा मित्र भी एक हाथ से लोहे की खिड़की का ग्रिल पकड़े हुए अपने दूसरे हाथ को अंदर ले जाने में कामयाब हुआ। वह ग्रिल नहीं थामे रहता तो उसके आसपास मौजूद भीड़ द्वारा उसे कबका पीछे उठाकर फेंका जा चुका होता। 

इधर थोड़ी दूरी पर खड़े हम लोगों के मन में खुशी की लहर उछाले मारने को बेताब हो रही थीं। किसी तरह से हाथ में लिए रुपए के अनुसार ही टिकट काटने वाले ने हमारे बहादुर मित्र को टिकट थमा दिया। इसके बाद मित्र जब पलटा और एक हाथ उपर करके बाहर आने का प्रयास करने लगा तो हम लोग उसकी हाथों में हल्की नीले रंग के पतले छोटे छोटे कागज, जोकि फिल्म की टिकट थे, को देखते ही खुशी से झूम उठे। टिकट काटने वाला भी काफी अनुभवी मालूम पड़ता था। वह न तो किसी का चेहरा देख पा रहा था, न ही इस भीड़ में किसी की आवाज सही से सुन पा रहा था। लेकिन न जाने कैस वह वही टिकट उसी संख्या में काटकर दे रहा था, जिसके लिए कोई पहुंचा था। उसपर अनुभव और ज्ञान पर बड़ा अचरज होता था। 

हमारा सनीमा देखने की प्रक्रिया में अभी यह पहला ही बड़ा टास्क था। एक और दूसरा मुश्किल टास्क बचा रह गया था। इसमें हम सभी को शामिल होना था। और ये टास्क था हाॅल में जल्दी पहुंचकर कुर्सी बीछने का। क्योंकि टिकट पर कोई सीट नंबर नहीं हुआ करता था। जो जहां पहुंच जाए अपनी टिकट की श्रेणी के अनुसार कहीं भी बैठ जाए। अब ऐसे में कहीं आगे की सीट न मिल जाए, नहीं तो पूरा मजा ही किरकिरा हो जाए। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए गेट खुलने के साथ ही दौड़ लगानी थी। ताकि अच्छी जगह पर पीछे वाली सीटों पर कब्जा किया जा सके। लेकिन यह टास्क टिकट कटाने से भी थोड़ा मुश्किल मालूम होता था। क्योंकि इसमें किसी एक को ही नहीं बल्कि सभी को भीड़ में शामिल होना पड़ता था। लेकिन मेले और फिल्म के उत्साह में यह टास्क भी आड़े नहीं आ पाता था। 

मेले के अवसर पर पिक्चर देखने के लिए आसपास के लगभग दस से पंद्रह गांवों के लोग पहुंचते थे। इनमें युवाओं की तादाद ही ज्यादा होती थी। गजपुरहिया और डीअमू से आने वाले दर्शक इस कार्य में काफी प्रतिभा संपन्न थे। कोई मगछे को सिर पर बांधकर अपने को धुरंधर साबित कर रहा था, तो कोई कमर में बांध कर। कोई कोई युवाओं पान मुंह में भरकर लुंगी को अपने फिल्ली तक चढ़ाकर बांधे हुए थे। जिन्हे सीट की कोई चिंता नहीं लगती थी। जैसे जब चाहे वो अपनी मनपसंद वाली सीट पा लेंगे। उनकी नजर बार बार प्रवेश द्वार पर फिरा करती थी। पान की पीक रह रह कर पास की दीवार पर थूकते और अपने मित्रों से होंठ उठा उठा कर बात करते। उनके हर काम बड़ी फूर्ति दिख रही थी। कदाचित वे सीट घेरने के माहिर खिलाड़ी थे। हम लोग उनके सामने नौसिखिया से ज्यादा कुछ मायने नहीं रखते थे। वहीं, कुछ नौजवान जो बीए या इंटर की कक्षाओं में पढ़ते थे, पास में मौजूद गुमटी से पान बंधवा रहे थे। कुछ चबा भी रहे थे। लौटकर वे सभी प्रवेश गेट पर सबसे आगे खड़े हो गए और हुल्लड़बाजी करते हुए गेट खोलने के लिए शोर मचाने लगे। शो का समय भी हो गया था। उम्र में बड़े होने के साथ साथ वे सभी ठेठ देहाती भी लग रहे थे। ऐसे में उनके आगे कोई टिक भी नहीं पा रहा था। वो ठीक गेट के सामने सबसे पहले पायदान पर खड़े हो चुके थे। 

शो का समय सवा दस बजे सुबह था। अब दस बजकर बीस मिनट हो चुके थे। गेट के पास दर्शकों खासकर नौजवानों और हम जैसे बच्चों की भयंकर भीड़ थी। फस्र्ट क्लास, फेमली औल बालकनी के दर्शकों के प्रवेश के लिए दो ही दरवाजे थे। जहां से उन्हें प्रवेश दिया जाना था। दोनों ही दरवाजों पर भीड़ थी। हम लोग फेमली और फस्र्ट क्लास वाले दरवाजे के सामने भीड़ में दबे कुचले खड़े होकर गेट खुलने का इंतजार कर रहे थे। भीड़ के दबाव इतना था कि दोनों दरवाजों के लोहे के चैनल अंदर की ओर धंसे जा रहे थे। जैसे कभी भी वह टूटकर गिर जाएंगे। भीड़ का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था। वहीं, पहले से ही हाॅल के अंदर मौजूद वहां के कर्मचारी भीड़ को निहार निहार कर इधर उधर घूम रहे थे। उन्हें फिल्म देखने के लिए उमड़ी भीड़ को देखकर आंनद की अनुभूति हो रही थी। टिकट चेक करने वाला अपनी जीप ब्रांड की टार्च की बैटरी चेक कर रहा था। बार बार टार्च को अपने ही मुंह पर जलाकर उसकी रोशनी देख रहा था। बीच बीच में उसे ठोक भी रहा था और अपने साथी से किसी बात पर चर्चा भी करता जा रहा था। सांवली सूरत वाला वह व्यक्ति पैजामा कुर्ता पहने बड़ी जिम्मेदारी से अपनी डयूटी निभाने वाला प्रतीत हो रहा था। तेल लगे छोटे छोटे बाल बड़े सलीके झड़े हुए थे और उसकी मूंछे भी पतली पतली थी। 

खैर, अब जोश में युवा शोर मचाने लगते हैं। कई दफा लड़कपन में उल जुलूल भी बक रहे थे। जिसपर आसपास खड़े अन्य नौजवान ठहाके लगाते और भीड़ के साथ सागर की लहरों के तरह आगे पीछे होते थे। इसके साथ पूरी भीड़ ही एक के बाद एक आगे पीछे होने लगती। तिल रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी। हम लोग भी किसी तरह उस भीड़ में अपना अस्तित्व बचाने के लिए पूरी कसरत से डटे हुए थे। कई दफा मेरे मित्रों की घड़ी, चसमा वगैरह इसी भीड़ की भेंट चढ़ जाया करती थीं। लेकिन कभी किसी ने इसका गम नहीं किया। दर्शकों की रेलम पेल और शोर शराबा अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। गर्मी से सभी लोग बेहाल थे। नए कपड़े सिकुड़ कर ऐसे हो गए थे, जैसे उन्हें महीनों से घड़े में रखा गया हो। पैंट में खोंसी गई शर्ट अब बाहर निकल आई थी। बनियान गंजी भी अब पेट पर चढ़ने लगी थी। इस दौरान कुछ उत्साही नौजवानों की ओर से बीच बीच में बोली जा रहीं अल्हड़पन वाली बातें और नारे ही थे, जो थोड़ा बुहत चेहरे पर मुस्कान बिखेर रही थीं। ये बातें हमपर किसी हास्य व्यंग की तरह असर कर रही थीं। 

फिर अचानक ही गेट खोलने वाला वहां पहुंचा है और धड़धडाकर बालकनी वाला चैनल से ताला खोल देता है। अभी आधा चैनल ही खुला होता था कि जल्दी से प्रवेश के चक्कर में युवा उसमें घुसने लगते थे। कई तो दस दस बीस बीस सेकेंड तक उसमें फंसे ही रहते थे। फिर पीछे खड़ी भीड़ के धक्के से एक ही बार में दस दस लोग एक साथ अंदर पहुंच जा रहे थे। पहले बालकनी का गेट खोलने का मकसद सिर्फ इतना ही था कि भीड़ का दबाव थोड़ा कम हो जाए। लेकिन फस्र्ट क्लास वाले युवा इसे अपने साथ हो रही नाइंसाफी की तरह देख रहे थे। बार बार चिल्लाकर कह रहे थे कि काहो खाली बलकोनिये वाला खुली, इहो गेटवा खो ल न तो गेटवा तोड़ा जाई...। हम सब भी इसपर अपना समर्थन दे रहे थे। 

खैर थोड़ी देर बाद हम लोगों वाला गेट भी खोल दिया गया। धक्का मुक्की के बीच हम लोग भी हाल के अंदर प्रवेश करने में कामयाब हुए। सभी लोग चिल्लाते और शोर मचाते हुए गैलरी से गुजरे। कुछ एक्सपर्ट मित्र पहले से ही वहां पहुंच कर गमछा, टोपी और चप्पलों को सीटों पर रखकर हमारे लिए सीटों का बंदोबस्त कर चुके थे। थोड़ी देर अंधेरे और शोर शराबे के बीच इधर उधर देखने के बाद हमारे एक्सपर्ट मित्र हाथ हिलाते हुए नजर आ गए। उन्हें भी संतोष मिला कि सभी लोग आ गएं। क्योंकि सीट बीछने के बाद उस पर कबतक आधिपत्य रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होती थी। इसलिए जल्दी से सीट पर आसन जमाना ही इसका एकमात्र ठोस उपाए था। जब सभी लोग अपनी अपनी सीटों पर इतमीनान से बैठ गए तब जाकर सुकून मिला। 

फिल्म के शुरू होने के साथ ही सीटी बजनी शुरू हो गई। कोई बिना वजह ही चिंघाडता तो कोई आई उई उउ की चीखते हुए आवाज निकालता। टिकट चेक करने वाला भी मरती हुई बैटरी से जल रहे टार्च की मध्धिम रोशनी में सबको टिकट चेक करता है। बीच बीच में दर्शकों और उसके बीच में होने वाली बहस भी सुनाई दे रही थी। हम सभी का ध्यान फिल्म पर था। रुक-रुक-रुक, अरे बाबा रुक... गाने पर दर्शक झूम उठ रहे थे। अबतक किसी भी फिल्म को देखने में इससे ज्यादा मजा नहीं आया। पूरी फिल्म में कोई भावुक होता तो कोई खुद को अजय देवगन ही समझने लगता। 






कई देर से पहुंचने वाले दर्शक लोगों को तो सीट भी नहीं मिल सकी थी। उन्हें खड़े खड़े ही फिल्म देखनी पड़ रही थी। शायद टिकट वाले ने भीड़ का फायदा उठाकर सीटों से ज्यादा टिकट बेच दी थी। लेकिन खड़े होकर फिल्म देख रहे दर्शक भी क्या करते। अब अंदर पहुंचकर बाहर निकलने का मन तो कर नहीं रहा था, सो सीटों के किनारे पर खड़े होकर फिल्म का आनंद ले रहे थे। और बीच बीच में सीटों पर बैठकर फिल्म का आनंद ले रहे दर्शकों को जलन भरी नजरों से ताक भी रहे थे। खैर मेला देखने का यह पहला पड़ाव था। तीन घंटे बाद शो खत्म हो जाता है। शो छूटने पर कई लोगों के बाल माथे पर एक तरफ गिरे हुए थे। समझ में आ गया कि इन पर फिल्म के नायक अजय देवगन की खुमारी छाई हुई है और वे खुद को वही समझ रहे हैं। 

यहां पर शो देखने के बाद अब दुबारा दूसरी टाॅकीज कमसार, जो कि दिलदार नगर और आसपास के क्षेत्रों में खुलने वाली पहली सिनेमा टाकिज थी, में फिल्म देखने के लिए दौड़ लगाने की तैयारी थी। ऐसा ही किया गया। जबकि वहां पर शो शुरू होने का समय भी वही था, जो यहां पर शो खत्म होने का था। ठीक सवा एक बजे। फिर भी किस्मत ने हमारा साथ दिया और किसी तरह कमसार टाकीज पहुंच ही गए। वहां फिर से टिकट के लिए वैसी ही जंग शुरू र्हुई जो, कुमार टाकीज में हुई थी। यहां पर भी हमारे योद्धाओं ने बड़ी बहादुरी से लड़़ कर विजय का पताका लहरा दिया। दोनों ही टाकीजों में लगातार दो फिल्में देखी गईं। अबतक शाम के साव चार बजे चुके थे। फिल्म देखने के बाद अब दशहरा मेला देखना था। सिनेमा हाॅल से निकलने के बाद कुछ देर तक हमारी आंखे धूप में चैंधिया रही थी। आंखे धूप में नहीं ठहर रही थीं। धीरे धीरे ही हमारी आंखे सामान्य हुईं। 

कमसार टाकीज परिसर मे लोगों की भीड़ जमा थी। युवाओं की दर्जनों टोलियां थी। सबकी नजरें फिल्म के पोस्टर्स पर बार बार जा रही थीं। आसपास मौजूद चाय और पकौड़ी की दुकानों पर ग्राहकों का मजमा़ लगा था। कोई समोसे खा रहा था। कोई चाय की चुस्की भर रहा था। तमाखू और पान की गुमटियों पर भी लाइन लगी थी। गुमटी, ठेले और मड़ई में दुकान लगाने वालों को आज फुरसत ही नहीं मिल रही थी। ग्राहक लगातार बड़े चाव से वहां पहुंचते जा रहे थे। छोटी मोटी दुकानें, जो जूट व प्लास्टिक के बारे, पन्नियों, घांस फूस, टूटे फूटे खपड़ा और पुअरा की मड़ई ही थीं। इनमें फिल्मों के पोस्टर भी लगे हुए थे। इन पोस्टरों पर हाथ से लिखे गए वाक्यं कि आज से कुमार में रोजाना तीन शो, कमसार में रोजाना चार शो, दशहरा मेले के अवसर पर पांच शो, सभी को अपनी तरफ आकर्षित कर रहे थे। भदौरा तक के सिनेमा हालों में लगी फिल्मों के पोस्टर इन दुकानों में दिखाई दे जाते थे। लोग चाय पीते, पकौड़े समोसे का स्वाद लेते इन पोस्टर्स पर निगाह फेरते। ठीक उसी तरह जैसे, किसी भी सिनेमा हाल में लगने वाली फिल्म के बड़े पोस्टर के अलावा कई छोटे छोटे और काफी स्पष्ट  तस्वीरें प्रस्तुत करने वाले चित्र प्रदर्शनी को देखा करते थे। जिनमें फिल्म के कई दृश्यों को दर्शनीय ढंग से प्रस्तुत किया गया होता था। 

फिल्म देखने के बाद मैं और मेरे मित्र अब उस दिशा में रवाना होते हैं, जहां दिलदार नगर की प्राचीन रामलीला (Ram Leela) का मंचन किया जाता है। कमसार टाकीज से वहां तक पहुंचने के लिए बड़ा ही सरल और छोटा सा रास्ता हुआ करता था। इसलिए वहां पहुंचने में कोई खास समय नहीं लगता था। रामलीला चतूबतरा जैसे जैसे करीब आता जा रहा था। हमारी कानों में लाउड स्पीकर की ध्वनी बढ़ती जा रही थी। जिसपर रामलीला में प्रतिभाग कर रहे बाल और युवा कलाकारों के शानदार संवाद सुनाई दे रहे थे। अब यह आवाज हमारी कानों में लगातार बढ़ती जा रही थी। इसके साथ साथ हमारी उत्सुक्ता भी बढ़ती जा रही थी। आखिर में हम सभी लोग वहां पहुंच गए। 

रामलीला स्थल के आसपास लोगों का हुजूम लगा था। मंच पर कलाकार रंग बिरंगे परिधानों में सजधज कर अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। ढोल, हारमोनियम और अन्य वाद्ययंत्रों की धुन पर उनकी अभिनय गाथा जारी थी। लोग बड़ी उत्सुक्ता से रामलीला का आनंद उठाने में डूबे हुए दिखाई पड़ रहे थे। भक्ति गीतों पर दर्शक भाव विभोर हुए जा रहे थे। लेकिन लोगों का सैलाब इतना था कि अपने लिए जगह ढूंढने में बड़ी कठिनाई हो रही थी। कोई भी ऐसी जगह नहीं बची थी, जहां से आसानी से रामलीला देखा जा सके। हर तरफ दर्शक ही दर्शक थे। इसपर अब मेले का समय भी अपने चरम के करीब ही था। सो आसपास ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले लोगों की संख्या अब बढ़ती ही जा रही थी। कई लोग रामलीला स्थल के आसपास बने घरों के आगे स्थित किसी उंचे चबूतरे पर पैर टिकाए खडे़ थे। पास स्थित घरों में लोग अपनी अपनी छतों और बालकनियों से रामलीला के हर दृश्य को कौतुहल भरी नजरों के साथ निहार रहे थे। 

विभिन्न रूपों में सजे धजे कलाकार हर किसी को मोहित करते हुए प्रतीत हो रहे थे। कोई बानर का मुखौटा पहने उछल कूद कर रहा था, तो कोई चेहरे को रंग बिरंगे रंगों से सजाकर विभिन्न पात्रों के अभिनय करने में तल्लीन दिखाई पड़ रहा था। नकली धनुष, गदा, तलवार, भाला लिए कलाकार अपनी अपनी प्रतिभा को रामलीला के मंच पर दिखा रहे थे। वे अपनी अभिनय की पूरी क्षमता के साथ प्रस्तुति दे रहे थे। बीच बीच में दस सिरों वाला रामण (रावण) का अहंकारी अट्ठाहास सभी दर्शकों को रोमांचित कर रहा था। 

रामलीला स्थल के ठीक सामने वाली सड़क पर ही रावण का विशाल पुतला खड़ा था। काले रंग का लिबास, लाल लाल डरावनी घूरती हुईं बड़ी बड़ी आंखे, बडे बडे दस सिर, हाथ में तलवार और ढाल लिए हुए बड़ी बड़ी मूछों वाला रावण मेले में आने वाले लोगों को बड़ी दूर से ही दिखाई दे जा रहा था। लोग उसके पास जल्दी से जल्दी पहुंच जाने को आतुर हो रहे थे। जैसे रावण का वह विशाल पुतला सभी को आ जाओ आ जाओ कहकर बुला रहा हो। पुतले के इर्द गिर्द लोगों की भीड़ थी। साथ ही वहां से लोगों का लगातार गुजरना हो रहा था। सबकी नजर उस पुतले पर ठहर सी जा रही थी। बिना उसे देखे कोई भी आगे नहीं बढ़ रहा था। भीड़ के आने जाने की रफ्तार वहां पहुंचकर थम सी जा रही थी। 

हम सभी मित्र भी रावण के पुतले के साथ साथ रामलीला का मंचन देखने के लिए किसी बेहतर जगह की तलाश में जुट गए। कोई नाली के उपर बने चबूतरे पर जगह पाता है, तो कोई वहां से थोड़ी दूर जाकर किसी उंची जगह पर अपने पैर टिकाता है। आन गांव से आने वाले कई लोग तो अपनी अपनी साइकिलों को स्टैंड पर या किसी दीवार के सहारे लगाकर सीट या कैरियर पर चढ़कर रामलाली के दृश्यों को देख रहे थे। ऐसा करके वे खूब आनंदित हो रहे थे। वहीं, भीड़ की वजह से सड़क या जमीन पर खड़े होने वालों को मंच साफ साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। इसपर से हम लोग अभी छोटे छोटे थे। हमें तो बस आवाज ही सुनाई दे रही थी। उस दौर में आज की तरह अच्छे स्पीकर नहीं होते थे। ऐसे में आवाज भी कभी कभार चीं पूं करके आ रही थी। जो कभी कभी अचानक रुक भी जा रही थी। शांति छा जा रही थी। लेकिन संवाद जारी रहा कर रहे थे। बिजली के अचानक जाने से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही थी। 

इस दौरान कभी कभार किसी के कंधों के बगल से कोई पात्र हमें दिखाई पड़ जाता था। इसी पर हम लोग खुश हो जाया करते थे। लेकिन रामलीला का पूर्ण रूप से दर्शन कर पाना हम बच्चों के लिए संभव नहीं हो पा रहा था। पूरा का पूरा रामलीला परिसर लोगों से भरा हुआ था। वहां मौजूद ज्यादातर लोग हम लोगों से काफी लंबे लंबे थे। ऐसे में मित्रों ने यहां पर ज्यादा वक्त न देकर मेला देखने को तरजीह दिया। शाम भी होने वाली थी। लोग अब मेले में झुंड के झुंड के पहुंच रहे थे। कोई पैदल तो कोई हमारी ही तरह टेंपू और जीप से मेला देखने पहुंच रहा था। इसी तरह अब डीअमू और गजपुरहिया से भी खूब भीड़ पहुंच रही थी। 

मैं और मेरे मित्र मेला स्थल के लिए रामलीला स्थल से आगे बढ़ जाते हैं। सड़क पर अब चलने की भी जगह मुश्किल से मिल रही थी। सड़क के किनारों पर नाली बह रही थी। सभी लोग उससे बचकर आगे बढ़ रहे थे। ताकि किसी का पैर नाली में न पड़ जाए। सड़क के किनारों पर अब दुकानें लगाई जा चुकी थी। कहीं फुकना की दुकान लगी थी तो कहीं पर खाने पीने की चीजों की। खासकर छोले, चाट, समोसा, पकौडे आदि की दुकानें ही ज्यादा दिखाई पड़ रही थी। कई दोस्तों को अब भूख लगने लगी थी। इसपर लगातार हमारी नाकों में प्रवेश करती लजीज पकवानों की सुगंध भूख को और बढ़ा रही थीं। सभी ने तय किया कि अब कुछ खा लिया जाए। सभी दोस्त एक अच्छी सी दुकान (ठेले पर लगी हुई) देखकर, जहां ज्यादा भीड़ नहीं थी, ठहर जाते हैं। फिर समोसा, चाट, पकौड़े, छोले, अंडा जिसको जो पसंद आया, उसी के हिसाब से आॅर्डर दे दिया गया। कुछ देर बाद सभी लोग व्यंजनों के लुत्फ में खो गए। एक बार पेट भरने के बाद जैसे हममें दुबारा नई स्फूर्ति का संचार हो गया। हम उमंग से भर उठे। यहां से हम मेला स्थल के लिए पुनः प्रस्थान करते हैं।  






वैसे तो पूरा बजार ही मेला स्थल प्रतीत हो रहा था। लेकिन एक प्रमुख मेला स्थल के रूप में दिलदार नगर रेलवे स्टेशन के पास मौजूद रेलवे का पुराना हो चुका पार्क ही ज्यादा मशहूर था। हम लोगों को वहां तक पहुंचना था। भीड़ में धीरे धीरे हम आगे बढ़ रहे थे। जैसे जैसे मेला करीब आता जा रहा था। सड़क पर दुकानों की कतार और लोगों की संख्या में इजाफा होता जा रहा था। सड़क के किनारों पर पहले से ही दुकानें लगा दी गईं थीं। मिठाइयों की दुकानें खास तौर पर लगी थीं। दुकानों के आगे चैकी बिछा बिछाकर मिठाइयां सजाई गईं थी। उनके पास से गुजरने पर मिठाइयों की मनमोहक सुगंध हमें मंत्रमुग्ध किए देती थी। मेला देखने आने वाला हर व्यक्ति कोई न कोई मिठाई अवश्य ही खाता था। साथ ही मेला देखकर लौटते समय घर के लिए भी मिठाई जरूर ले जाया करता था। तब रसकदम, लंग लत्ता, रसगुल्ला, रस मलाई, बर्फी, पेड़ा जैसी मिठाइयों का अपना ही बोलबाला था। 

तब इमरती और जलेबी सभी मिठाइयों के सरदार हुआ करते थे। इनकी भी जगह जगह दुकानें लगाई जाती थीं। जहां पर हलवाई लगातार चिन्नी या गुड़ के इमरती या जलेबी छानता रहता था। काली सी बड़ी तश्तरी में लाल लाल जिलेबी बड़ी ही सटिक ढंग से सरिया कर रखी रहती थी। एक बड़ी सी कढ़ाई में जिलेबी लगातार छनती रहती थी। ये कढ़ाई बड़े से कायेले से धधकते चूल्हे पर रखी होती थी। ये चूल्हा लोहे के बड़े ड्रम को काटकर और उसपर मिट्टी लपेटकर विशेष तौर पर तैयार किए गए होते थे। तश्तरी में रखी जिलेबी पर और उसके उपर लाल वाले हाड़े मंडराते रहते थे। लेकिन वे किसी को काटते नहीं थे। लगते थे कि हवलवाई के पालतू हाड़े हैं। वो उड़कर कभी उसके हाथों पर तो कभी उसके बड़े से कलछूली पर बैठ जाया करते थे। लेकिन हलवाई उन्हें भगाने के बजाए जलेबी छानने में ही मगन रहता था। 

लोग एक एक किलो दो दो किलो इमरती या जलेबी घर के लिए पैक कराते थे। मेले के दिन लोग कोई और मिठाई खाएं चाहे न खाएं लेकिन चिन्नी की जिलेबी जरूर खाते थे। गरम गरम जिलेबी खाने के चक्कर में कइयों के मुंह जल जाते थे। और कई कई दिनों तक जिलेबी वाले को कोसते रहते थे। जिलेबी खाने के बाद लोग प्लास्टिक के नीले, पीले या लाल रंग के बड़े बड़े ड्रमों में बिना ढके रखे गए पानी को प्लास्टिक या अलमुनिया के जग से निकाल निकाल कर पीते थे। दशहरे के अवसर पर जलेबी की दुकानों पर बहुत हलचल रहा करती थी। सभी मिठाइयों पर जिलेबी भारी पड़ा करती थी। 

ये सभी दृश्य हमारी आंखों के सामने से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में मिठाइयों और चाट पकौड़े की दुकानों के अलावा कई जगहों पर खिलौनें की दुकानें भी लगाई गईं थी। जहां पर हम सारे दोस्त कुछ देर तक रुक रुक कर आगे बढ़ रहे थे। सभी खिलौनों को बड़े गौर से निहारते थे। लेकिन अभी उन्हें खरीदने की जल्दबाजी कोई नहीं कर रहा था। कचकड़े का हवाई जहाज, प्लास्टिक की बंदूक, बैट बाल, जीप, कार, ट्रक, ट्रैक्टर हमारी पहली पसंद हुआ करते थे। लगभग खिलौने की सभी दुकानों पर हम कुछ देर ठहर जा रहे थे। ये दुकाने सड़क के किनारे नाली के उपर लकड़ी का पटरा या पत्थर का पटिया डालकर और उसपर खाद, बीज के बोरे बिछाकर लगाए गए थे। एक साथ सैकड़ों खिलौने सजाकर रखे होते थे। लेकिन अभी खरीदने पर कोई जोर नहीं था। क्यों कि अभी हमें रेलवे पार्क तक पहुंचना था। और रास्ते में भारी भीड़ थी। चलने के लिए भी जगह नहीं मिल रही थी। ऐसे में अभी से खिलौना खरीदने के मतलब था कि अपनी परेशानी को और बढ़ा लेना। पार्क में या फिर लौटने के दौरान ही खिलौना खरीदने पर सभी का ध्यान था। शोर और लोगों की भुनभुनाहट तेज होती जा रही थी। लगभग एक किमी की दूरी पार करने में ही हमें लगभग एक घंटा का वक्त लग गया। 

पार्क पहुंचने से पहले रेलवे का फाटक पड़ता था। इस फाटक से पहले ही सरैला रोड और दिलदार नगर के मुख्य मार्ग का एक छोटा सा मिलन स्थल था। जो एक तिराहे के रूप में था। यहां पर दोनों मार्गाें से गुजरने वाले लोगों की टकराहट होती थी। इससे भीड़ अचानक से दोगुनी हो जाती थी। मेले के दिन तो यह भीड़ और भी बढ़ गई थी। लोग एक दूसरे में घुसे जा रहे थे। बार बार ट्रेनों के आने जाने का समय हो जाने के चलते फाटक भी कई बार बंद हो जाता था। इससे भीड़ अपने चरम पर पहुंच जाता था। तब लोग दुकानों के सामने बने चबूतरों, नाली के उपर पैर रखकर किसी तरह से उस भीड़ से पार पाने की कोशिश करते हुए दिखाई पड़ते थे। आज भी वैसी ही स्थिति बार बार आ रही थी। यहां पर बर्तन और लोहा लक्कड़ की कई दुकाने थी। जिनपर ग्राहकों का मजमा था। पित्तर, अलमुनिया, स्टील, पलस्टिक सभी प्रकार के बर्तन, बाल्टी, जग, गिलास, प्लेट, डेग, भगौना आदि यहां बिकते थे। कुछ बर्तनों को एक के उपर एक रखकर सड़क से सटाकर ही रख दिया गया था। ऐसा लगता था कि भीड़ के धक्के से सड़के के किनारे रखे गए सारे बर्तन बाल्टी कभी भी छनछनाकर गिर जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं होता था। 

जैसे तैसे हम लोग रेलवे फाटक के करीब पहुंच गए। यहां रेल लाइनों के मध्य में एक केबिन बनी हुई थी। गेरूआ रंग से रंगी हुई इस केबिन में कई खिड़कियां थी। इन खिड़कियों से ही कभी लाल तो कभी हरी झंडी ट्रेनों के गुजरने के दौरान दिखाई जा रही थीं। लगातार ट्रनों का आना जाना हो रहा था। ऐसे में रेलवे की ओर से भी फाटक पर लगातार नजर रखी जा रही थी। ट्रेन आने से थोड़ी देर पहले ही लोग रेल पटरियों से हटते थे। वरना रेल पटरियां लोगों के पैरों के नीचे ढकी रहती थीं। स्टेशन करीब होने की वजह से वहां चार जोड़ी पटरियां गुजरती थीं। रेलवे लाइनों पर दुकाने लगाई गईं थी। कोई खिलौने बेच रहा था, तो कोई फलों की दुकान लगाए हुए था। पास में ही मछली की दुकान पर भी खूब भीड़ थी। फाटक से लेकर पार्क तक। और रेलवे प्लेटफार्म पर जो वहां से कुछ ही दूरी पर था, ग्रामीणों का तांता लगा हुआ था। संयोग से फाटक खुला हुआ था। हम लोग भी भीड़़ में शामिल हो गए। हमारे चारों ओर लोग ही लोग थे।  

ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के बीच पटरियों और रेल गाड़ियों को लेकर समान्यतः एक विशेष आकर्षण हुआ करता है। यहां पर मुझे और मेरे दोस्तों को पार्क पहुंचने से पहले ट्रेनों को गुजरते हुए देखने के कई सुनहरे अवसर मिले। ट्रेनें गुजरतीं और हम लोग टकटकी लगाकर उन्हें देखा करते। जैसे ही किसी ट्रेन के आने का समय होता फाटक बंद हो जा रहा था। तब पुराने जमाने वाला सिग्नल सिस्टम था। रेल लाइनों के किनारों पर मौजूद खभों पर लोहे की पंखे की तरह दिखने वाले सिग्नल हुआ करते थे। दिन के समय वे उपर या नीचे हुआ करते थे। जिसके अनुसार ट्रेन का चालक सिग्नल को समझ लेता था और ट्रेन को चलाता था। रात के समय इन्हीं सिग्नलों में लालटेन जलाकर रख दिए जाते थे। जिससे सिग्नल के उपर या नीचे होने पर उसमें लगे लाल या नीले रंग के शीशे की वजह से लाल या हरी चमक दिखाई पड़ती थी। 

बहरहाल यहां पर फाटक बंद होने के बाद भी लोगों का आना जाना नहीं रुकता था। लेकिन जैसे ही किसी ट्रेन का हार्न सुनाई देता या किसी ट्रेन का धुंधला धुंधला इंजन दिखाई जान पड़ता तब लोग पटरियों से तुरंत हटना शुरू कर देते थे। कई तो इसमें मामले में बड़े घाघ साबित हो रहे थे, जो रेलवे की सिग्नल को देखकर ही अंजादा लगा रहे थे कि अब किस दिशा से ट्रने आने वाली है। वह अप की है या डाउन की। या फिर वह रुकने वाली ट्रेन है कि थ्रू निकल जाएगी। हथेलियों पर तमाखू रगड़ते हुए, लुंगी पहने, गले में गमछा डाले, काली और पतली मंूछों व सांवली सूरत वाले ये लोग, जिनकी उम्र 35 से 40 साल के बीच की लगती थी, अपनी इन बातों को भीड़ के बीच तेज आवाज में अपनी हल्के अंदाज वाली अदा सें बता भी रहे थे। लेकिन आसपास के लोग उनकी बातों को गंभीरता से ले रहे थे। ट्रेन की जानकारी देने वाले अपने आपको ऐसा प्रतीत करा रहे थे कि मानो वे रेलवे व रेलगाड़ियों के बड़े खास जानकार हों। जो भी हो, उनके जरिए लोगों को समय पर सूचना मिल जा रही थी। इस तरह से वह मेला देखने आए लोगों की मदद ही कर रहे थे। 

रेलगाड़ी के आने की खबर लगते ही रेल पटरियों व इसके करीब लागई गईं दुकानों को बड़ी ही सलीके से पल भर में हटा लिया जा रहा था। फिर डीजल इंजन से लैस लाल डब्बों वाली ट्रेनें जब लोगों के भीड़ के बीच से गहरा काला धुंआं छोड़ते हुए गुजरती तो लोग बड़ी अचरज और उत्सुक्ता से उसे तबतक देखते थे, जबतक कि गार्ड का आखरी कोच पार नहीं हो जाता था। कई थू्र निकलने वाली रेलगाड़ियां तो धूल उड़ाती हुई निकलती थीं। इस दौरान लोग ममछा और रुमाल से अपना मुंह और सिर को ढांप ले रहे थे। लेकिन ट्रेन की गति धीमी होती तो उसमें बैठे यात्री भी आसपास के दृश्यों को देखकर कौतुहलता प्रदर्शित करते हुए मुस्कुरा उठ रहे थे। वे खिड़की के करीब आ जा रहे थे। रेल डब्बों के दरवाजों के पास खड़े इसी स्टेशन पर उतरने वाले यात्री इन दृश्यों को देखने के लिए इधर उधर नजर दौड़ाते। सभी टे्रनों से पार्क के अंदर का नजारा साफ दिखाई पडता था। सालों पहले गेरूआ रंग से रंगी गई जगह जगह से टूटी फूटी पार्क की बाउंड्रीवाॅल की उंचाई हम लोगों के लिए काफी ज्यादा थी, लेकिन ट्रेन में बैठे यात्रियों के लिए उसका कोई मायने नहीं था। यात्रियों को ट्रेन के अंदर से सब नजारे साफ साफ दिखाई देते।  

जब कोई मालगाड़ी क्रास होती थी तो थोड़ी बोरियत भी होने लगती। खैर, सभी लोग अब पार्क के द्वार तक पहुंच गए। एक बार फिर से सभी मित्रों ने अपने पास बचे हुए पैसों का अंाकलन किया। किसके पास कितने पैसे बचे हैं। उसी के हिसाब से मेले का लुत्फ उठाने का निश्चय किया गया। सभी लोग अपने पाकिट से पैसे निकालकर गिन रहे थे। पैसों को सभी बड़ी मजबूती से थामे हुए थे। शायद उन्हें यह अंदेशा था कि कहीं पैसे गिर न जाए या कोई छीनकर चंपत न हो जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मित्रों में एक दो को छोड़ कर सभी के पास पर्याप्त राशि बची हुई थी। इन पैसों में से हमें खिलौने खरीदने और झूला झूलने के साथ साथ घर के लिए भी थोड़ी बुहत मिठाई लेने के लिए कुछ बचा कर रखना था। इसलिए नोट और सिक्कों को बड़ी प्रतिभा के साथ खर्च करना था। 






मैं और मेरे मित्र पार्क में पहुंच चुके थे। हमारी निगाहे वहां के मंजर को देखते थक नहीं रहे थे। पार्क के चारों ओर दुकानें लगाई गईं थी। सब एक कतार से। बीच बीच में चलने फिरने के लिए बस कुछ फीट का रास्ता ही छोड़ा गया था। जिस पर लोगों की भीड़ आ जा रही थी। हर तरह के खिलौने दिख रहे थे। प्लास्टिक और माटी की गुड़िया, गाड़ी, रेलगाड़ी, घोड़ा, हाथी, चकरघिन्नी, पिस्तौल, बानर, शेर, टीना की नाय, मुखौटे, धनुष, बाण, गदा सभी चीजें यहां बिक रही थी। दुकानदार भी जमीन पर खाद बीज की बोरियां बिछाकर अपनी दुकानें लगाए हुए थे। दुकानदारों ने इनपर खिलौनों को बड़े ही सलीके से सजा कर रखा था। वे बार बार खिलौनों को कपड़े से साफ भी करते जा रहे थे। दुकान और ग्राहक दोनों पर दुकानदारों की नजर बराबर बनी रह रही थी। खिलौनों की चाह हर बालक को इन दुकानों के पास रुकने के लिए विवश कर रही थी। 

बीच बीच में फुकना (गुब्बारे) बेच रहे कई युवा, अधेड़ और वृद्ध ग्राहकों से घिरे हुए थे। बांस के लंबे डंडे में बांधे गए सभी फुकने हवा में लहरा रहे थे। रंग बिरंगे फुकनों का पूरा खजाना ही था उनके पास। लाल, पीले, हरे, गुलाबी, नारंगी सभी रंगों में उनके पास फुकने मौजूद थे। बच्चों की पसंद के मुताबिक वे किसी को पहले से फुलाए गए गुब्बारे बेच रहे थे, तो किसी को नए गुब्बारे में हवा भरके दे रहे थे। फुकना फुलाने के लिए वे किसी साइकिल के टायर में हवा भरने वाले पंप की तरह दिखने वाले यंत्र का उपयोग कर रहे थे। बार बार उसे हाथ से उपर नीचे करके फुकनों में हवा भर रहे थे। जिससे सांय सांय की आवाज आती थी। फुकना बेचने वाले बड़े कलाकार भी थे। कुछ ही पलों में वो किसी भी गुब्बारे को बानर, तितली, घोड़ा, फल आदि का रूप दे दे रहे थे। इस काम में उन्हें कोई बाधा नहीं आ रही थी। कई नन्हे मुन्ने उनके पास अपने अभिभावकों के संग हमेशा खड़े दिख रहे थे। बच्चों के हाथों में ये रंग बिरंगे गुब्बारे बड़ी शोभा दे रहे थे। वे उन्हे आसमान में उछालने का जतन करते हुए खुश हो रहे थे। सभी बच्चे अपने मन पसंद फुकनों को देखकर मारे खूशी के फूले नहीं समा रहे थे। 

पूरा का पूरा रेलवे पार्क रंग बिरंगे तिरपालों और पन्नियों से ढका हुआ था। जो बड़ा ही रंगीन और सुनहरा प्रतीत हो रहा था। चिनिया बदाम से लेकर झाल मुड़ी तक बिक रहे थे। कई नौजवान वहां जमीन पर बैग रखकर कुछ बेचते हुए दिखाई दे रहे थे। उनके पास जाने पर पता चला कि वे सांप की आकृति वाले प्लास्टिक के खिलौना बेच रहे थे। ये बनावटी काले काले सांप जमीन पर रेंगते भी थे। पैरों के पास आने पर बेचने वाला दोबारा उन्हें अपनी तरफ मोड़ ले रहा था। इसी तरह उनके पास हरे हरे प्लासिटक के सुग्गा और मुर्गी भी थे। वो भी जमीन पर चल रहे थे। ये सभी खिलौने एक पतली से पाइप के जरिए जो, काफी लोचदार थे, से जुड़े हुए थे। उनके सिरे पर प्लास्टिक से बना नरम मुट्ठा रहता था, जिसे दबाने पर हवा के चलते सांप और सुग्गा इधर उधर भागने लग रहे थे। 

सूरज अब ढलने को आने वाला था। मेले में किरासन तेल से जलने वाले गेस और अन्य माध्यमों से रोशनी का इंतजाम भी शुरू हो चुका था। जनरेटर भी चलने लगे थे। बिजली उस समय आती थी, लेकिन बुहत कम समय के लिए। या कब चली जाए उसका कोई भरोसा नहीं था। पार्क के चारों ओर दुकानें दिखाई पड़ रही थी। जो लोगों से घिरी हुईं थी। लाउड स्पीकर पर तरह तरह की सूचनाएं गूंज रही थी। कभी कभी कोई फिल्मी गाना ही बजने लगता था। 

पार्क में कई जगहों पर एयरगन में अरहर का बिना दरा हुआ दाल डालकर फुकना फोड़ने की होड़ मची हुई थी। दुकानदार भी एक बार फैर करने के बाद तुरंत नाल तोड़कर दूसरा अरहर का दाना डाल देता था। इस काम में उसे कुछ सेकेंड का ही समय लग रहा था। निशानची लोग भी अपना जौहर दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे थे। कोई जलती मोमबत्ती बुझाने पर तुला हुआ था, तो कोई फुकना फोड़ने पर ज्यादा फोकस कर रहा था। सभी अपने आपको किसी स्नाइपर से कम नहीं समझ रहे थे। जब बार बार के प्रयास के बाद भी उनका निशाना ठीक नहीं लगता तो वे एयरगन को और अरहर की दाल को दोषि  ठहराने लगते। कोई कहता बंदूकिया का नाले टेड़ बा, तो कोई कहता कि दालिया से ठीक निशान नइखे लागत, गोली होइत तो एक ही बार में इनकर कूल फुकनवे फोड़ देंती। आसपास से गुजरने वाले लोग भी रुक रुक कर उन्हें ऐसा करते हुए देख रहे थे। पूरे पार्क में इसी तरह हर प्रकार के मनोरंजन, खिलौने, खानपान, झूले, पाचक आदि की दुकानें सजी हुईं थी। 

पार्क की बाउंड्री के बाहर, जहां से गजपुरहिया रेल गाड़ी की पटरी गुजरती थी, वहां पर दो तीन जादूगर अपना अपना करतब दिखा रहे थे। शायद उन्हें पार्क में जगह नहीं मिल पाई थी। इसलिए उन्होंने पार्क के बाहर मिली थोड़ी बहुत जगह में ही अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया था। जादूगरों के आसपास भीड़ की कोई कमी नहीं हो रही थी। बीच में जादूगर और उसका चेला तरह तरह के खेल दिखा रहे थे। दर्शक उनके चारों ओर घेरिया कर खड़े थे। दर्शकों के बीच से रह रह कर यह बात सुनाई देती थी कि बै मरदे इहो कौउनो जादू ह। लेकिन मंतरफुंकवों पर पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था। 

इन्ही में से एक जादूगर के मंतर फूंकने पर भीड़ में दर्शक बनकर खड़ा उसका चेला पहले से सेंटिंग के मुताबिक जमीन पर दस ढमनिया खा जा रहा था। दोबारा मंतर मारने पर चेला कलटिया मार कर बेहोश हो जा रहा था। कभी कभार झुठिया का मुंह से गाज फेंकने लगता। फिर थोड़ी देर में चेला उठकर खड़ा भी हो जाता था। और हवा में उछलने कूदने लगता था। जादूगर भी अब करके बदमाशी...? जैसे सवाल अपने हर मंतर के साथ चेले के सम्मुख दागता जा रहा था। जिस पर चेला भी घिघियाते हुए अब ना करब बदमाशी, छोड़ द, गलती हो गईल... उत्तर देता। इस पर आसपास खड़े लोग ठहाके मारकर हसंते थे और सिक्के उछाल उछाल कर जादूगर और उसके चेले के करीब बिछाए गए गमछे पर फेंकते। जादू का खेल खत्म होने पर गुरु चेला इन पैसों को बटोर ले रहे थे और आधा आधा बांट ले रहे थे।   

मेला स्थल पर कई जगहों पर पार्क की बाउंड़ी वाॅल के किनारों पर या रेल पटरियों के आसपास बहुत सारे छोटे छोटे कोयले के चूल्हे सुलग रहे थे। दुकानदार इन चूल्हों पर कुकुढ़ी भूजकर बंेच रहे थे। कुकुढ़ी अर्थात भुट्टा भूजने के लिए कोयले दहकाते हुए गरीब वृद्धों के पास आज कुछ ठीक ठाक कमाई करने का अवसर था। मटमैले कपड़े पहने, पतले दुबले, पैर मोड़कर उकुरू बैठे कुकुढ़ी भूजने वाले बार बार कोयला सुलगाने के लिए पंखे से हवा दे रहे थे। कभी वे कोयले से उठने वाली धुंआ से अपनी आंखे मूंदते कभी धुंआ होने के बाद भी कुकुढ़ी पर ही ध्यान देते। भइया भइया करके वह कुकुढ़ी भूजते और ग्राहकों को देते जा रहे थे। दो चार पैसे हाथ में आ जाने की उम्मीद उनके चेहरे से साफ झलकती थी। स्टेशन पर उतरने वाली सवारी या मेला देखने आए लोग घूमते फिरते कुकुढ़ी खरीद कर खा रहे थे। साथ ही अपनी इधर उधर की बातों से टाइम पास भी कर रहे थे। इस दौरान कोई कुकुढ़ी पर नमक और नीबू रगड़ने में व्यस्त था, कोई भुट्टे वालों से और ज्यादा भूजने के लिए जिरह करता दिख रहा था। कुकुढ़ी का स्वाद बरसात के मौसम में बड़ा ही प्यारा लगता है। उनसे उठने वाली सुगंध सभी को उस ओर खींच ले जा रही थी। लेकिन कुकुढ़ी खाने के दौरान राख वगैरह मुंह में लग जाते थे। जो हंसने या बोलने पर दांतों पर भी काले काले धब्बे के रूप में नजर आते थे। जो कि सामान्य बात ही थी। खैर। 
[...मेला में लइका फइका त माटी क जाता, चूल्ही अउर बंसूड़ी खरीद के खुश हो जात रहन। लेकिन जिनकर जिनकर बियाह लाग गइल रहे, अउर अबहिन बियाह ना भइल रहे। साइत से कुकुढ़ी खात के ओहन लोग क समने जब कउनो ससुराली वाला पड़ जात रहन न, तब त बड़ा मजा आवत रहे। कुकुढ़ी क साथे साथे वोह लोगन क जतरे बन जात रहे। न लुकइते बने अउर न भगते बने। कुकुढ़ी क करिक्खा लागल दांत देखावत मुस्किया के हीत गन के सलाम करहीं के पड़त रहे। एम्मे कउनो बोड़ बात ना रहे, बकिर इ त कहे के होइए जात रहे कि फलनवा का दमदा कुकुढ़ी खात के आज बजरिया में रमलिल्ला मेलवा में भेंटाइल रहल ह...]
पार्क में भी छोले और समोसे की दुकानें थी। ठेले पर लगी इन दुकानों के चारों ओर लोग खड़े होते जा रहे थे। और व्यंजनों का सेवन कर रहे थे। ठेले पर चूल्हे पर रखे गर्म तवे पर खौलते तेल में छोला मटर कल्छुल से खट खट करके तैयार किया जा रहा था। हम लोगों ने मेला परिसर का एक पूरा चक्कर लगा लिया था। अब इन खान पान के ठेले के करीब से गुजरने पर फिर से कुछ खाने पीने का मन करने लगा। सभी ने एकराय होकर खाने पीने लुत्फ दोबारा उठाने को तैयार थे। चूल्हे पर बड़ा सा तवा रखकर चाट तैयार करता दुकानदार सभी ग्राहकों को उनकी पसंद और आर्डर के मुताबिक छोला, समोसा, पकौड़ी तैयार करके दे रहा था। छोला बेच रहा दुकानदार, जिसने गर्मी के चलते बदन पर एक गंजी (बनियान) डाल रखी थी। मटमैले रंग की हो चुकी अपनी सफेद लुंगी को घुटने से उपर मोड़ कर बांध लिया था। वह हम सभी दोस्तों को छोले तैयार करके दिए जाता और आसपास से गुजरने वाले लोगों को बुलाने के लिए आवाज भी देता जा रहा था। उसकी दुकान पर ग्राहकों की भीड़ वहां मौजूद दूसरी दुकानों की अपेक्षा ज्यादा ही थी। अपने कार्य में वह काफी माहिर लग रहा था। फिर से पेट पूजा कर लेने के बाद हम सभी ने जो कुछ खरीदना था, उसपर ध्यान दिया। 

मिट्टी के खिलौने उस समय खूब पसंद किए जाते थे। इनमें जाता, चूल्ही, गुड्डा, वकील, बंदर, भालू, घोड़ा, शेर, हाथी, दुलहा, दुलहिन, बर्तन की मांग खूब हुआ करती थी। टीना की नाय भी खूब बिकती थी। जिसेे गमले में पानी भरकर हम लोग खूब चलाते थे। बच्चे इन्हें खूब चाव से खरीदते थे। हम सभी को भी इन खिलौनों को देखकर खरीदने का मन करता था। इसी तरह लकड़ी की गाड़ी जिसमें एक लंबा सा डंडा होता था और उसके निचले सिरे पर एक लकड़ी से बना हुआ पहिया लगा होता था, वो हम सभी को खूब पसंद आया। कुछ मित्रों ने उसे खरीद लिया और जहां जगह मिलती उसे चलाते हुए चलते। भीड़ दिखने पर उसे हाथ में उठा लिया करते थे। उस समय वो खिलौना हमारे लिए किसी जैगुआर कार से कम नहीं थी। इसी तरह किसी ने जहाज, तो किसी ने जीप खरीदी। रेलगाड़ी और बैलगाड़ी भी खूब पसंद किए गए। लेकिन जो खिलौना हम सभी के लिए एक समान रूप से पसंद था। वह थी बंसुड़ी (बांसूरी)। 






सभी ने अपने अपने पास बची रकम के अनुसार और पसंद के मुताबिक बंसुड़ी की खरीदारी की। कोई छोटी तो कोई बड़े आकर की बंसूड़ी ले रहा था। कोई फुकना वाला तो कोई सादा बंसूड़ी खरीद रहा था। बंसूड़ी को रंग कर विभिन्न मनमोहक रूप भी दिया गया था। हम लोग छोटे थे। इसलिए ज्यादा बड़े आकार के बजाए मध्यम आकार वाली बंसूड़ी को ही खरीदा। खरीदने से पहले उसे कई बार बजा बजा कर चेक भी किया गया। बिना सुर ताल के भी हमारी बंसूड़ी से निकलने वाली वह धुन हम लोगों को किसी पारंगत बांसुरीवादक की संगीत से कम नहीं लग रहा था। मानो बंसी बजाने में हमसे बढ़कर कोई इस जमाने में है ही नहीं। कई दफा इतनी बार बजाते थे कि बंसूढ़ी का मुंह भी आद्रित हो जा रहा था। मानो वह थक कर रोने लगी हो। एक और खिलौना था, जिसे हम लोगों ने खरीदा। 

इस खिलौने का नाम था पिपिहरी। प्लास्टिक के पिपहरी खूब बिक रहे थे। पार्क की बाउंड्रीवाॅल से सटाकर लगाई गई दुकान पर रंग बिरंगी पिपिहरी धागों के सहारे सजाए गए थे। गुलाबी, काली, पीली, सफेद, हरी सभी रंगों में पिपिहरी उपलब्ध थे। टेरीकाट का पुराना शर्ट और कोई पुरानी पैंट पहने पिपिहरी बेचने वाला खड़े खडे़ अपना एक पैर दीवार से टिकाकर पिपिहरी बेंच रहा था। वे हमारी पंसद के अनुसार बार बार पिपिहरी निकालकर देता जा रहा था। पिपिहरी खरीदते ही मानों हम बेजुबान हो गए हों। अब शब्दों की जगह पिपिहरी की बोली में ही हम लोग आपस में बात करने लगे थे। हममें से कोई एक बार पिपिहरी बजाता तो दूसरा दो बार बजाकर उसका मौके पर ही जवाब दे रहा था। कोई लगातार पिपिहरी बजाए जा रहा था। इस दौरान हम लोगों ने अपनी कमर में बड़ी ही सावधानी पूर्वक अपनी अपनी बंसूड़ी को खोस कर सुरक्षित रख लिया था। ताकि वह टूटे फूटे नहीं। फिर पिपिहरी बजाते हुए पार्क का दोबारा पूरा चक्कर लगाया गया। हर दुकान को फिर से एक एक बार भरपूर नजरों से निहारा गया। सभी दृश्यों को आत्मसात कर लिया गया। 

अब अंघेरा घिर चुका था। मेला अपने चरम पर पहुंच चुका था। उधर रामलीला का मंचन संपन्न हो चुका था। रामण का पुतला दहन भी हो चुका था। इसलिए वहां की भीड़ भी अब मेला स्थल अर्थात रेलवे पार्क पहुंचने लगी थी। भीड़ अब पूरे शबाब पर थी। यहां 99 प्रतिशत लोग भोजपुरिया समाज के थे। एक दूसरे से सभी इसी मीठी बोली में बात कर रहे थे। अपनी खास संस्कृति के अनुसार कोई लंुगी कुर्ता, तो कोई पैजामा कुर्ता, तो कोई धोती कुर्ता पहन कर मेला देखने पहुंच रहा था। लेकिन नई उम्र के लोग पैंट शर्ट ही पहने हुए दिखाई पड़ रहे थे। उस समय जींस का कोई नामों निशान तक नहीं था। सभी लोग वही सामान्य पैंट शर्ट ही धारण किए हुए थे। तब फैशन का एक मात्र संसाधन हम लोगों को बस यही पैंट शर्ट ही समझ में आता था। कदाचित हम लोग ही वो पहली पीढ़ी थे, जहां से हमारे गांव की संस्कृति में आधुनिकता बड़े इत्मीनान से प्रवेश करने वाली थी या कर रही थी। भीड़ बढ़ रही थी और हम लोगों के घर लौटने का समय भी करीब ही था। लेकिन थोड़ी देर तक हम लोग वहीं पर रुके। और मेला देखने का आनंद लेते रहे। 

मेले में घूमते फिरते हम लोग पार्क में अस्थाई तौर पर खोले गए फोटो स्टूडियोज के पास से गुजरे। स्टूूडियों के अंदर के दृश्यों को देखकर हम लोग कुछ देर वहां ठहर जा रहे थे। यहां फोटो खिंचवाने के लिए लोग पूरे परिवार के साथ आ जा रहे थे। छोटे छोटे सफेद टेंट या भूरे रंग के तिरपाल डालकर खोले गए इन स्टूडियोज में बड़े ही आकर्षक पर्दे लगाए गए थे, ताकि फोटो में आने वाली सीनरी अच्छी रहे। पर्दाें पर पहाड, जंगल, कार, मोटर साइकिल, नदी, मोर, सुग्गा, शेर, बाघ आदि के चित्र बने हुए थे। लोग अपनी पसंद के अनुसार इन स्टूडियोज में पहुंच रहे थे। कोई पत्नी और बच्चों के साथ फोटो खिंचा रहा था, तो कोई हाथ में गुलदस्ता लेकर फोटो खिचांना पसंद कर रहा था। युवाओं की कई कई टोलियां फोटो खिचवाने के लिए थोड़ी थोड़ी देर में पहुंच रही थीं। मुन्ना स्टूडिया और रूपा स्टूडियो उस समय खासे ख्याति प्राप्त व प्रचलित नाम हुआ करते थे। हाथ में रील वाला कैमरा लिए कैमरा मैन ग्राहकों को बुला रहे थे। और फोटो खींचने के बाद लोगों पुर्जी ...रसीद.. पकड़ाते जा रहे थे। हस सभी मित्र इन दृश्यों को अपने मन में समेटे ले रहे थे। 

मेले में कौन हिन्दू कौन मुसलमान। सभी लोग यहां एक हो गए थे। इस मेले में दोनों ही धर्माें के लोग एक साथ पहुंचते थे। भाई चारे के साथ दशहरा मेले का एक संग लुत्फ उठाते थे। किसी से कोई बैर नजर नही आता था। आज भी यही अनूठी मिसाल दिलदार नगर की पहचान है। बच्चे बच्चियां, औरतें, हर उम्र के लोग मेला देखने पहुंच रहे थे। अब तक रात के आठ बज चुके थे। ग्रामीण इलाकों में जल्द ही रात की शांति छाने लगती है। अब मेला अपने पूरे चरम पर था। पार्क में लगाए गए झूले अपनी चीं चा की आवाज के साथ रफ्तार भर रहे थे। किसी भी दुकान वाले, जादू वाले, खिलौने वाले, झूले वाले को अब दूसरे कामों के लिए फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। रात जब गहराने लगी तो सारे दुकानदार एकाएक अपनी दुकानें, झूले, ठेले, बोरिया बिस्तर समेट कर पार्क की बाउंड़ी वाॅल के पास पहुंचकर एक तरफ हो गए। पार्क के चारों ओर ऐसा ही किया गया। हम लोग भी एक तरफ खड़े हो गए थे।  

रंग बिरंगे झालर, ट्युबलाइट और बल्ब से जगमगा रहे पार्क के बीच का स्थान खाली कर दिया गया था। ऐसा इसलिए किया गया कि क्योंकि हर साल मेले के अवसर पर रात में पार्क में पर्दे पर एक या दो धार्मिक फिल्में दिखाई जाती थीं। इसी की तैयारी शुरू हो रही थी। देखते ही देखते पार्क के बीचों बीच दो बांस के डंडों के मध्य में एक सफेद रंग के पर्दे को व्यवस्थित ढंग से फैलाकर लगा दिया गया। आयोजक पूरी गंभीरता के साथ इसका इंतजाम कर रहे थे। रात में मेले में रुककर धार्मिक फिल्में देखने का भी अपना अलग आनंद था। इसमें भी सभी वर्गाें के लोग एक साथ बैठकर फिल्मों का लुत्फ उठाया करते थे। भेदभाव किसी चिड़िया का नाम है, यहां पर कोई नामो निशान तक नहीं दिखता। 

देखते ही देखते पर्दे के दोनों ही तरफ दर्शकों की भीड़ जमीन पर ही बैठ गई। फिल्म शुरू हुई। लोगों की नजरें एक टक पर्दे पर गड़ी हुईं थी। पर्दे के दोनों तरफ से दर्शक फिल्म का आनंद ले रहे थे। पर्दे के एक तरफ कोई पात्र दाईं तरफ तो दूसरी तरफ वही पात्र बांई तरफ दिखाई दे रहा था। लेकिन इससे किसी भी दर्शक को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। हर संवाद और गीत भजन पर दर्शकों की वाहवाही और तालियां सुनाई दे रही थीं। फिल्म शुरू हुए कुछ ही देर हुई थी कि हम लोग अब वहां से चलने के लिए तैयार हो गए। क्योंकि अब रात ज्यादा होने लगी थी। हमारा गांव भी वहां से लगभग सात आठ किलो मीटर दूर पड़ता था। इस समय वहां जाने के लिए कोई सवारी गाड़ी मिलनी भी मुश्किल थी। ऐसे में सभी को पैदल ही गांव के लिए चलना था। 

हम सभी लोग पार्क के पिछले गेट से बाहर निकले। यह गेट रेलवे स्टेशन से थोड़ा सटकर ही था। पार्क से निकल कर कुछ देर के लिए पलेटफारम और मुसाफिर खाना देखने पहुंचे। हम लोग वहां के दृश्यों को आंखों में कैद करते हुए चल रहे थे। दशहरा मेले के अवसर पर दिलदार नगर रेलवे स्टेशन भी किसी मेला परिसर से कम नहीं लगता था। हर पलेटफारम .पर यात्रियों की भीड़ के अलावा मेला देखने वालों का भी हुजूम उमड़ा रहता था। सबसे ज्यादा भीड़ मुसाफिर खाना में दिखाई देती थी। तब आसपास के ग्रामीण इलाकों में दिलदार नगर जंक्शन के प्लेटफार्म नंबर एक पर मौजूद यह मुसाफिर खाना बुहत ही ज्यादा मशहूर हुआ करता था। दूर दराज के लोग यहां पर पहुंचकर अपने संगे संबंधियों से मेल मिलाप किया करते थे। कइयों के तो समधियाने के रिश्ते की शुरूआत भी इसी मुसफिर खाने से हुई होती थी। शादी बियाह के रिश्ते तक इसी मुसाफिर खाने में मिलकर बैठकर तय हो जाते थे। लड़के लड़कियों को दिखने दीखाने का काम भी यहीं पर हो जा करता था। दिन भर महिलाओं और बच्चों का शोर यहां पर गूंजती रहती थी।

मेले के दिन भी ऐसा ही हो रहा था। सामान्य दिनों की तुलना में कई गुना ज्यादा लोग मौजूद थे। मुसाफिर खाने में यात्रियों के बैठने के लिए बनाई गईं सीमेंट कंक्रीट की कुर्सियां कम पड़ती जा रही थीं। कोई शादी के बाद पहली बार ससुराल से यहां पहुंचकर नइहर वालों से मिल रहा था। तो कोई अपने करीबियों रिश्तेदारों से बड़े दिनों बाद मुलाकात कर रहा था। नई नई दुल्हनें गौना और दोंगा के बाद नइहर के लोगों को देखकर गर से गर मिलाकर खूब रो गा रही थी। मां बेटी गले मिल मिल कर रो धो रही थी। उनकी यह रोने की ध्वनी किसी संगीत की तरह एक लय में सुनाई देती थी। इस दृश्य को गांव की बोली में भेंट कइल कहा जाता था। एक सुर में यहीं रोने की आवाज रह रह कर आ रही थी। मेले के दिन गांव गांव से औरतें ससुराल और नइहर से यहां पहुंचती थी। उन दिनों इसका बड़ा महत्व था। यहां आने वाली महिलाओं में कोई एक बरस पर तो कोई दस बीस बरस पर अपने माई, बाप, भाई, भउजाई से मिल रही थीं। रोने धोने के कुछ ही देर बाद सारा माहौल खुशियों में बदल जा रहा था। फिर तो हंसी मजाक शुरू हो जाता था। चारों ओर हर्ष और उल्लास का माहौल बन जा रहा था। 

इन सब दृश्यों को देखते हुए हम लोगों ने अपने कदम रेलवे फाटक की तरफ बढ़ा लिए। जिधर से हम लोग पार्क में पहुंचे थे। रेलवे लाइनों के किनारे किनारे बहुत सारे लोग आ जा रहे थे। यात्री सिर पर बोरा, हाथ में झोला, डोलची, अटैची लिए निकले जा रहे थे और मेला देखने वाले चमकिल्ला में मिठाई, समोसा, बंसूड़ी, पिपिहरी, फुकना आदि लिए गुजर रहे थे। फाटक पार करने के बाद सड़क पर अभी भी भीड़ बनी हुई थी। दोनों तरफ से लोगों का आना जाना हो रहा था। हालांकि अब रास्ते में चलने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हो रही थी। बिजली नहीं थी, लेकिन बजार की सड़कें दुकानों पर किए गए रोशनी के इंतजामों की वजह से जगमगा रही थीं। लौटते वक्त मिठाई की दुकनों से कुछ रस कदम और रसगुल्ला भी ले लिया गया। 






सरैला वाले रोड पर थोड़ा आगे बढ़ने पर जिलेबी की दुकान से भी खरीदारी कर लिया गया। कुछ आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे खड़े एक ठेले पर बैठा युवक दाना भूजता हुआ दिखाई दिया। ठेले पर फरूही में गाड़कर रखी गई मोटी सी धूप बत्ती जल रही थी। इसका धुंआ पूरे ठेले को धेरे हुए थी। ठेले पर एक किनारे रखे गए कोयले के चूल्हे से लगातार धुंआ निकल रहा था। चूल्हे पर रखे एक गर्म कढ़ाही में बालू भरा हुआ था। जिसमे वे लोगों को दाना भूज भूज कर दे रहा था। किरासन तेल से जलने वाले चिराग की हल्की रोशनी में वह अपना सारा काम कर रहा था। हम सभी लोगों ने वहां पर अपनी अपनी पसंद के अनुसार दाना भुजवाया। चिनिया बदाम, फरूही, रहिला, चिप्स आदि के मिश्रण के साथ सभी के दाने भूंझकर ठेले वाला बारी बारी से सभी को देते जा रहा था। इसके साथ पुराने अखबार के छोटे छोटे कागज में नमक और धनिया लहसुन की स्वादिष्ट चटनी भी दे रहा था। दाने वाले का हिसाब किताब करने के बाद हम मित्रगण गांव के लिए अंतिम कूच कर गए। 

थोड़ी देर में हमने बजार को पीछे छोड़ दिया। जैसे जैसे बजार हमसे दूर होता गांव जाने वाली सड़क भी सुनसान होती जा रही थी। रोशनी भी लगातार कम होती जा रही थी। इससे सड़क पर अब नाममात्र का ही उजाला रह गया था। ऐसे में लड़कपन की उल जुलूल बातें बोलकर हम लोग एक दूसरे को हंसा रहे थे। इस दौरान कभी कभी सभी मित्र अचानक एक साथ दौड़ भी लगा दिया कर रहे थे। लेकिन आधा एक किलोमीटर जाकर ठहर जाते थे और फिर से पैदल चलने लग जाते। ऐसा करने से हमारा रास्ता जल्दी जल्दी तय हो रहा था। अपनी लकड़ी की गाड़ी चलाते, कभी पिपिहरी बजाते तो कभी बंसूड़ी के बेसुर के सुर निकालते हुए चलते जा रहा थे। सड़क पर रह रह कर हाथ में जलता टार्च लिए साइकिल से आते जाते युवाओं की टोली हसंते और ठहाके लगाते हुए निकलती थी। उनको देखकर हमें सतोष होता था कि चलो अभी लोग आ जा रहे हैं। वरना अंधेरी रात और झिंगुरों की आवाज बालमन में भय तो उत्पन्न कर ही देती हैं। 

इसी बीच हमारे गांव के ही दो नवयुवक डिसूजा (बदला हुआ नाम) और उसका चेला काले रंग की पुरानी इस्टाइल वाली हीरो साइकिल पर एक साथ बैठ कर मेला देखकर लौट रहे थे। दोनों के बीच लंगोटिया याराना था। डिसूजा साइकिल चला रहा था, जबकि उसका चेला पीछे कैरियर पर दोनो तरफ टांग फेलाकर बैठा था। जो बार बार गर्दन इधर उधर करके आगे सड़क पर झांक रहा था। दोनों ने पैंट शर्ट और स्पोट्र्स वाला सफेद जूता पहन रखा था। दोनों गहरे रंग के और शरीर से काफी हष्ट पुष्ट भी थे। उनकी चिल्ला चिल्लाकर बातें करने की वजह से हम लोग उन्हें कुछ दूरी से ही पहचान गए थे। वे हम लोगों से उम्र में दस बारह साल बड़े थे और रिश्ते में मेरे चचेरे चच्चा लगा करते थे। वे दिलदार नगर में ही एक सरकारी इंटर काॅलेज में पढ़ते थे। पास पहुंचते ही वे हम लोगों की तरफ मुड़कर देखने लगे और बोले कि का रे अबहिन एहिजे बा ट सो... हम लोग मुस्कुराते हुए उनकी तरफ देख रहे थे। अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी पंडिल रोकने की वजह से उनकी साइकिल की चैन उतर गई। चैन उतरते ही डिसूजा की नजरें पंडिल को ताकने लगीं। फिर उसने साइकिल रोक दी। दोनो साइकिल से उतर कर सड़क पर खड़े हो गए और चैन चढ़ाने लगे। कभी टायर उठाकर तो कभी पंडिल को उलटा घुमाकर। कुछ ही देर में उन्होंने चैन दोबारा चढ़ा लिया। 

लेकिन अब वे हम लोगों के साथ ही पैदल चलने लगे। डिसूजा का चेला साइकिल के दोनों हैंडल पकड़ कर चल रहा था। जबकि डिसूजा हम लोगों के आगे आगे चलने लगा। अभी कुछ कदम ही चले थे कि डिसूजा ने अपनी पैंट से एक समोसा निकाला और खाना शुरू कर दिया। इस पर उसके चेले ने भी समोसा खाने को मांगा। लेकिन डिसूजा ने यह कहकर मना कर दिया कि एकही गो रहल ह, ना ही त तोरो के दे देतीं। इस पर चेला मन मसोस कर रह गया।  जब एक समोसा खतम हो गया तब डिसूजा ने दूसरी जेब से दूसरा समोसा निकाला और फिर खाना शुरू कर दिया। इसपर चेला उसकी ओर देखकर झल्लाने लगा। डिसूजा ने फिर बोला कि खाली दुइएगो समोसा रहल ह, तोरा के बता देती त ममला गड़बड़ा जाइत। चेला इसपर शांत होकर गुस्से में चलने लगा। दूसरा समोसा हजम कर लेने के बाद डिसूजा ने फिर से पैंट की जेब में हाथ डाला और तीसरा समोसा निकाल कर मुस्कुराते हुए खाना शुरू कर दिया। इसे देखकर उसके चेले से नहीं रहा गया और वह साइकिल को सड़क पर गिराकर उसकी जेब पर झपट पड़ा। लेकिन तीन ही समोसा थे। चेला के हाथ कुछ नहीं लगा। इस वाक्ये को हम लोग पीछे पीछे देखते आ रहे थे और खूब हंसते जा रहे थे।  

इसी तरह हंसी ठिठोली करते हुए हम लोग धीर धीरे सड़क मार्ग से गांव के काफी नजदीक पहुंच गए। गांव करीब आते ही हममें और जोश आ गया और हम सभी ने एक दौड़़ में ही गांव का पहला घर छू लिया। डिसूजा और उसका चेला भी दोबारा साइकिल पर सवार होकर गांव पहुंचे। इसके बाद तो काठ की एक पहिया गाड़ी चलाते हुए अपने अपने घर पहुंच गए। घर पहुंच जाने पर परिजनों के चेहरों पर संतोष दिखाई दिया। फिर चटपट खाना भी परोस दिया गया। पेट तो पहले से ही भरा होता था, लेकिन मेला देखने और अभी कुछ दिन की और छुट्टियां होने की खुशी में सब खा लिया करते थे।  

इस बार मेला देखने के बाद भी मेरे पास लगभग 25 प्रतिशत राशि बच गई थी। जिसे गांव की दुकानों पर जा जा कर खर्च कर दिया। कभी लमचूस खरीदकर तो कभी पटनहिया पाव रोटी लेकर। उस दौर में हम लोग सौ रुपए से भी कम राशि में पूरा मेला घूमने सहित जी भर के खा पी लिया करते थे। खिलौने भी खरीद लिया करते थे। लेकिन अब तो मेला देखने के लिए इतने ही पैसे किसी बालक को दिए जाएं तो वह मुंह बना लेगा। खैर समय के साथ साथ महंगाई भी बढ़ गई है। ऐसे में ये मिसाल मेरी नजरों में अटपटा ही लगता है कि हम लोग इतने ही रुपए में पूरा मेला घूम लिया करते थे। मेरे पिता जी बताते हैं कि अपने समय में हम लोग सिर्फ 75 पैसे लेकर मेला देखने जाया करते थे। इसी में हम बंसूड़ी, जिलेबी, पिपिहरी, काठ की गाड़ी आदि ले लिया करते थे और पूरा मेला घूम फिर लिया करते थे। रात में भक्ति फिल्मों का आनंद लिया करते थे और भोर होते होते पैदल ही घर पहुंच जाया करते थे। 

बहरहाल, बच्चे और किशोर दिलदार नगर से दशहरा मेला देखकर अब घर लौटने लगे थे, लेकिन गांव के नए नए युवा हुए जवानों के आने में अभी थोड़ी देरी थी। हमारे चच्चा और उनके दोस्त भी मेला देखने जाया करते थे। लेकिन वे तब लौटते थे जब हम लोग सो जाया करते थे। बचपन में नींद भी समय पर आती है। और शाम ढलते ही पलकें अपने आप बंद होने लगती हैं, लेकिन ये तो दिलदार नगर के दशहरा मेले का उमंग था, जिसकी बदौलत हम इतनी देर तक जग जाया करते थे। मेला देखकर हम वैसे भी थक जाते थे। इसलिए नींद हमें और भी अच्छी आती थी। मेले की अगली सुबह भी हमारे लिए किसी बड़ी खुशी के दिन से कम नहीं हुआ करता थी। सुबह जब सोकर उठते थे तो अपने खटिया (चारपाई) के पास कई खिलौने रखे हुए पाते थे। जिसमें गाड़ी, लकड़ी के खिलौने, प्लास्टिक के जहाज, बांसूरी आदि शामिल होते थे। अभी आंखे ठीक से खुली भी नहीं होती थीं कि हम अपने खटिया के पास रखे इन खिलौनों को देखकर चहक जाया करते थे। 

मेरे चारपराई पर भी सिधाने एक प्लास्टिक का बंदूक और जहाज रखा हुआ था। सुबह उठने के बाद इन खिलौनों को अपने पास रखा देखकर मारे खुशी के मैं फूले नहीं समाया। लकड़ी की एक गाड़ी भी थी। जो दीवार के साहारे लगाकर रखी गई थी। ये सभी वे खिलौने थे जो मेरे चच्चा मेरे लिए और मेरे छोटे भाई के लिए मेले से खरीद कर लाए थे। इन्हंे देखकर हम उत्साह से भर उठे थे। पूरे दिन इन्हीं खिलौनों के साथ अपना दिन बिताया करते थे। बंसूड़ी, गाड़ी, बंदूक, जहाज ये सभी तो कुछ दिन में ही खराब हो जाया करते थे। टूट फूट कर घूरे पर फिंक जाती थीं। लेकिन लकड़ी की एक पहियवा गाड़ी, जिसे हम हाथ में लेकर चलाते थे, बहुत दिनों तक हमारा साथ निभाती थी। इसलिए वो खिलौना मेरा सबसे पसंदीदा था। लेकिन एक दिन वो भी टूट फूट ही जाता था। तब फिर से दशहरे मेले के लिए एक साल का इंतजार शुरू हो जाता था। कुछ ही दिनों में स्कूल की छुट्टियां भी खत्म हो जाती थी। और डर डर के पुनः स्कूल जाने का क्रम शुरू हो जाता था।  

दिलदार नगर का मेला मेरे मन में रच बस चुका था। मित्रों के साथ कई कई दिनों तक मेले की बातें ही हुआ करती थी। इसमें फिल्म देखने से लेकर गाव लौटने तक की बातों को कई कई बार दुहरा कर हर मित्र अपने अपने ढंग से व्यक्त किया करता था। खैर, इसके बाद और एक दो बरस ही गांव का मेला देखने का अवसर मिला। फिर मैं परिवार के साथ शहर चला गया था। लेकिन बड़े शहर के दशहरा मेलों में दिलदार नगर वाले मेले जैसी कोई बात नहीं नजर आती थी। सब कुछ होता था। बड़े बड़े झूले, आतिशबाजी, विशाल रावण का पुतला, भीड़ भाड़, लजीज व्यंजन, फिर भी मेरा मन दशहरे के मौके पर यहां नहीं लग पाता था। बिना मित्रों के मेला देखने में थोड़ा भी मजा नहीं आता था। इसके बाद जब भी स्कूल की छुट्टी होती तो मैं गांव चला जाया करता था। भेले ही एक दिन के लिए जाउं, लेकिन मेला देखने मैं अपने गांव ही जाया करता था। जहां दोस्तों के साथ दिलदार नगर पहुंच कर मेले का आंनद लिया करते थे। कई वर्षाें तक ऐसा ही चलता रहा। जैसे जैसे मैं बड़ी कक्षाओं में पहुंचता गया ये सब पीछे छूटता गया। इधर एक लंबे अर्से से मेले के अवसर अपने गांव नहीं पहुंच सका हूं। मन अभी भी करता हैं कि गांव पहुंचकर फिर से वही यादें ताजा की जाएं। लेकिन अब मेरे वो पुराने मित्र भी गांव नहीं रहते हैं। जो हैं भी, अब वे सभी अपने काम धंधे में ही ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

दिलदार नगर का दशहरा मेला हमारे मनों में बसा हुआ है। हमारी संस्कृति और परंपरा में शामिल है। भोजपुरिया समाज में एक अलग ही मिठास है। यहां प्रेम है, भाई चारा है, जुड़ाव है। इन सभी बातों की याद यह मेला हमेशा दिलाया करती है। गांव में गुजारे गए बचपना इस मेले से जुड़ी हुईं हैं। जितनी खुशी लइकापन में इस मेले को लेकर हुआ करती थी, सच कूहं तो आज भी उतनी ही होती है। अभी भी गांव पहुंचकर पुरोने दोस्तों के साथ मेला देखने का मन करता है। पुरानी यादें ताजा करने की जिज्ञासा और उत्सुक्ता होती है। वही दुकानें और वही मंजर देखने को मन बेताब होता है। अवसर मिला तो दिलदार नगर का दशहरा मेला देखने जरूर गांव पहुंचूंगा। आप भी आइए। क्योंकि ये दिलदार नगर का दशहरा मेला है। 

...और हां, मेरे गांव का नाम है कुर्रा (Tajpur Kurrah)

Post a Comment

0 Comments