क्या आने वाली पीढ़ी नहीं ले पाएगी इन पकवानों का स्वाद

आज आधुनिक जीवन शैली ने हमारी कई आदतों, पसंद आदि पर गहरा असर डाला है। कई को तो पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया है। चाहे बात हमारी मनोरंजन का हो या खेलकूद का सभी में बदलाव आता जा रहा है। उदाहरण के लिए किताबों की जगह अब शोशल मीडिया ने ली है। पारंपरिक पकवानों के स्थान आज के दौर में मशहूर हो चुके चाउमिन, डोसा, मोमोज जैसे फास्ट फूड्स ने ले ली है। आईए कुछ ऐसे व्यंजनों पर प्रकाश डालते हैं, जो अब रसोई घरों से लगभग गायब हो चुके हैं।

न कोई इन्हें खाना पसंद कर रहा है, ना ही कोई इन व्यंजनों को लुप्त होने से बचाने की कोशिश करता ही दिखाई पड़ रहा है। युवाओं को उनका स्वाद भले ही अच्छा न लगे लेकिन, क्या किसी पकवान को एक क्षेत्र विशेष से ऐसे ही गायब होने देने चाहिए। हम बात कर रहे हैं पूर्वांचल की। जहां पर कभी लगभग हर घर के रसोई में समय-समय पर कुछ ऐसे पकवान जरूर बनते थे। जिन्हें एक खास मौसम में विशेष व्यंजन के रूप में भी देखा जाता था। लेकिन अब ऐसा नही है। युवा पीढ़ी में तो ज्यादातर को इनका नाम ही नहीं पता है, न ही यह कैसे बनता है के बारे में कोई जानकारी है। स्वाद कैसा होता होगा। इसको लेकर भी उनको कोई अंदाजा नहीं है।


पूर्वांचल के गांवों में गन्ने की खेती कभी बड़े पैमाने पर की जाती थी। लेकिन सुविधाओं की कमी और मुनाफे के कम होने के चलते किसानों के बीच इसकी खेती के प्रति दिलचस्पती लगातार घटती गई। अब कुछ गिने चुने किसान ही इसकी खेती करते हैं। और इनमें ज्यादातर इसका व्यवसायिक उपयोग न करके घर के लिए करते हैं। क्योंकि गन्ने का स्वाद लेना और वो भी खुद के खेत से तोड़कर। इसका मजा ही कुछ और है। बहरहाल, पकवानों के बीच गन्नें की बात इसलिए कर रहे हैं क्यों कि कुछ व्यंजन गन्ने के रस से ही जुड़े हुए हैं। गांवों में जब गन्ने की पेराई शुरू होती है। और कराहे में जब गुड़ बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है तो एक मीठी सुगंध चारों ओर फैल जाती है। लोग बरबस ही उस तरफ चल पड़ते हैं और इसका स्वाद लेते हैं। लेकिन अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। 

गुड़ बनाने की प्रक्रिया के दौरान राब नामक एक मीठा शीरा जैसा दिखने वाला स्वादिष्ट गाढ़ा रस ...पका हुआ... भी प्राप्त होता है। जिसे पूर्वांचल के क्षेत्रों में राब के नाम से जानते हैं। क्या आज किसी ने किसी के घर में इसे देखा है। नवजवानों को तो इसका नाम ही अलग लग रहा होगा। हां, इतना जरूर है 90 के दशक के युवा इसको पहचान गए होंगे। तब यह घर-घर आम हुआ करता था। लोग इसे बर्तनों खासकर घड़े में सहेजकर रखते थे। कई कई महीनों तक यह सुरक्षित रहता था। लोग इसका स्वाद बड़े चाव से लेते थे। घीरे-धीरे घरों से राब लगभग गायब होता चला गया। इसका प्रमुख कारण गन्ने की खेती में आई तीव्र कमी है। हालांकि कुछ स्थानों पर गन्ने की खेती अभी भी की जाती है, लेकिन उसका मकसद ज्यादातर व्यवसायिक ही होता है और वो चीनी मिलों के सुपुर्द कर दिया जाता है। ऐसे में इस स्वादिष्ट मीठे व्यंजन को चखने का नसीब नहीं हो पाता है। 

क्या आपको पता है कि गाजीपुर जिले के दिलदारनगर क्षेत्र में सालों पहले गन्ने की खेती लगभग हर किसान ही करता था। पैदावार भी प्रति बीघा अन्य स्थानों की अपेक्षा ज्यादा ही होती थी। इस क्षेत्र की मिट्टी भी गन्ने की बैहतर पैदावार के लिए उपयुक्त थी। किसानों की रुचि और गन्ने की पैदावार को देखते हुए एक बार गन्ना विकास विभाग की ओर से दिलदारनगर क्षेत्र में चीनी मिल खोलने की योजना भी थी। लगभग सारी तैयारियां भी पूरी हो चुकी थी। तौल घर भी खोले गए थे, जो आज भी मौजूद हैं, लेकिन कम ही लोगों को इनका पता मालूम है। क्योंकि जब क्षेत्र में गन्ने की खेती ही लगभग बंद हो चुकी है तो लोग तौल घरों पर क्या करने जाएंगे और विभाग भी यहां पर बैठकर मक्खी तो मारेगा नहीं। सारी तैयारियों के बाद किन्हीं कारणों से चीनी मिल नहीं खुल पाया। मिल खुलता तो शायद क्षेत्र के विकास और गन्ना किसानों को काफी सहूलियत मिलती। लेकिन मिल खुलता, ऐसा कभी हो नहीं सका। 

इसी प्रकार इस क्षेत्र में बनने वाला एक और व्यंजन भी लगभग लुप्त सा हो गया है। मेरी नजरों में तो यह लुप्त ही हो गया है। क्योंकि मैने लगभग 20 सालों से इस व्यंजन को किसी घर में बनते हुए नहीं देखा। बपचन में इसे अपने ही घर में बनते देखा था और इसका स्वाद लिया था। इसे रसियाव के नाम जाना जाता है। देखने में गहरे भूरे रंग का और बेहद मीठा यह व्यंजन स्वाद में भी लजीज है। लेकिन अब इसे कोई पूछता नहीं है। खाने पीने की बदलती आदतों की वजह से हमने इस पुराने व्यंजन को अपने क्षेत्र से लुप्त ही कर दिया है। अभी भी दादी नानी के मुंह से इस व्यंजन का नाम सुनने को मिलता है। हाल ही में मैने अपनी दादी से इस व्यंजन के बारे में पूछा कि क्या अभी भी घरों में रसियाव बनता है। तो उनका जवाब था कि नहीं। अब शायद ही किसी के घर में यह बनता है। कोई खाता ही नहीं है। शायद हम सब अब आधुनिकता और बाजारवाद की भेंट चढ़कर चाॅकलेट और चाउमिन वाले हो गए हैं। 

एक और व्यंजन है। जाबर। कभी सर्दी के दिनों में अक्सर लोगों के घरों में यह व्यंजन बनता था। लेकिन अब कुछ स्वाद के शौकीन लोग ही इसे खाना पसंद कर रहे हैं। इसका स्वाद बेहद लजीज होता है। साथ ही यह पौष्टिकता से भरपूर व्यंजन है। लेकिन यह व्यंजन भी अब धीरे धीरे रसोई घरों से गायब होता जा रहा है। हालांकि अभी भी मेरे घर में इसे बनाया जाता है, लेकिन नई पीढ़ी इसे खाना उतना पसंद नहीं करता। दूध, लौकी और चावल इसके मुख्य सामग्री हैं। जो स्वयं ही अपनी पौष्टिक्ता को बयां कर रहा है। गांवों में पहले सब्जी घर-घर उगाई जाती थी। जिसमें लौकी का उगाना आम था। सो इसके लिए सामग्री जुटाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती थी। वैसे भी लोग एक दूसरे को सब्जियां भेज दिया करते थे। अब तो लोग गिनकर बैठे रहते हैं। क्या ऐसा नहीं है। नहीं है तो अच्छी बात है। फास्ट फूड की ललक यूं ही बढ़ती रही तो जल्द ही यह व्यंजन भी पूरी तरह से रसोई से गायब हो जाएगा।






गांवों से लुप्त होते व्यंजनों में एक और नाम उलटा का भी शुमार हो गया है। गांव में लगभग हर घर में इसे बनाया जाता था। लेकिन अब कुछ गिने चुने घरों में ही बनाया जाता है और वो भी कभी कभार। या यूं कहें कि यह व्यंजन भी अब रसोई से गायब होने वाला लगता है। उलटा नाम बड़ा अजीब है, लेकिन इसके स्थान पर आज की युवा पीढ़ी जिस व्यंजन को खूब चाव से खाता है उसे मोमोज कहते हैं। जी हां। आज के मोमोज को उलटा का क्लोन ही समझिए। ठीक ऐसा ही स्वाद होता है उलटा का। यह भी पानी में उबाल कर ही पकाया जाता था। जो स्वाद में लजीज और सेहत के लिए लाभदायक होता है। लेकिन हमने रुपए खर्च कर मोमोज खाने को बेहतर समझा और यह पकवान अब लुप्त होने के कगार पर है। और इसकी जगह मोमोज के शौकीनों की तादाद बढ़ती जा रही है।   

ऐसे कई पकवान हैं, जो हमारे गांवों में बनते थे। जो आज बड़ी मुश्किल से देखने को मिलते हैं। कई पकवानों को देखे हुए तो सालों बीत गए। स्वाद लेना तो दूर की ही बात है। जरूरी नहीं कि ये पकवान सभी को पसंद आए। आज खाने पीने की चीजों के लिए च्वाइस की भरमार है। फिर भी क्या किसी पकवान का एक क्षेत्र विशेष से गायब होना अच्छी बात है। स्थिति ऐसी है कि युवा इन्हें खाना पसंद नहीं करते और ना ही उन्हें इसे बनाने की कला या विधि ही मालूम है। कई को तो नाम ही पहली बार सुनने को मिलता है। 

कम से कम इन पकवानों को बनाने की विधि की जानकारी तो जरूर ही होनी चाहिए। ताकि इन पकवानों को विलुप्त होने से बचाया जा सके। यह भी एक बड़ी चीज है। जिस प्रकार हम अपनी पुरानी इमारतों, धरोहरों और अन्य चीजों को सहेजते हैं, उसी प्रकार हमारे पुराने और पारंपरिक पकवानों को भी सहेजने की जरूरत है। अभी से नहीं सदियों से यह पकवान हमारे घरों की रसोई के शान रहे हैं। कई पीढ़ियों ने इनका स्वाद लिया है। जो आधुनिक जीवन शैली और हमारे खाने पीने की बदलती आदतों की वजह से गायब होते जा रहे हैं। 

कभी मौका मिले तो दादी नानी से पूछिएगा कि कौन से पकवान ऐसे थे, जो आपके जमाने में बनते थे, लेकिन अब वह रसोई घरों से गायब हो चुके हैं। यकीन मानिए एक नहीं कई पकवानों के नाम सुनने को मिलेंगे। इसी बहाने उनसे बातचीन करने का मौका भी मिलेगा और इससे उन्हें खुशी भी मिलेगा। इतना जरूर कहूंगा कि कम से कम उन पकवानों के बारे में विस्तार से जानिए और उसे बनाने की प्रक्रिया भी समझिए। 

कभी घर में बवाइएगा भी। भले ही स्वाद अच्छा नहीं लगे। लेकिन ऐसा तो होगा कि एक पकवान फिर से जीवित हो जाएगा। ऐसा नहीं हुआ तो शीघ्र ही रसोई घरों से गायब होते पुराने पकवानों की फेहरिस्त में कई नए नाम और जुड़ जाएंगे। पुराने पकवानों के बहाने से ही सही, घर में दादी नानी के साथ कुछ देर बैठिए और उनसे बातें कीजिए। आपको अच्छा लगेगा। और इससे भी अच्छा आपकी दादी और नानी को लगेगा।

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