ये हैं गरीब एंतरप्रेन्योर्स ! हर रोज नई चुनौती

S.Khan February 27, 2018 
युवाओं के लिए चुनौती बनते जा रहे रोजगार के जमाने में अनगिनत लोग परिवार का पेट भरने के लिए कड़ी मेहतनत कर रहे हैं। इतना ही नहीं रोजाना दिनभर पैदल चलकर कई-कई किमी तक कुछ रुपए को सामान बेचकर रोजी रोटी का इंतजाम कर रहे हैं। इसमें कई तो उस उम्र के हैं, जिसमें आम तौर पर अधिकतर लोग बिस्तर पर रहते हैं या आराम ही करते हैं। लेकिन इनके लिए आराम नाम का कोई चीज नहीं है। सुबह घर से निकलकर शाम को वापसी होती है, तब घर का चूल्हा जलता है। कोई पकौड़े बेच रहा है तो, कोई बच्चों के खाने पीने वाली चीजें। कई ऐसे भी हैं, जो शिक्षित हैं। लेकिन रोजगार के लिए ठोकरें खाने के बाद अब चेन बनाने जैसे काम भी कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही लोगों का जिक्र इस पोस्ट में करूंगा, जिनके लिए धूप, सर्दी, बारिश सब एक जैसे ही हैं। दिन कड़ी मशक्कत से बीतता है।



सबसे पहले जिक्र करूंगा कानपुर के एक ऐसे बुजुर्ग का जिनकी उम्र 75 साल से ज्यादा ही होगी। और इनका नाम है नमो नारायण। रोजाना सुबह वह घर से लकड़ी की बनी खास हैंगर जिसपर कई सारी पन्नियों में बच्चों के खाने की चीज, जिसे सामान्यतः छुईमुई के नाम से जाना जाता है। खासकर गुलाबी रंग की यह खाद्य सामग्री बच्चों को खासी लजीज लगती हैं। इसका असली नाम क्या है, ध्यान में नहीं आया। बहरहाल, उनसे चर्चा करने पर उन्होंने बताया कि, प्रतिदिन 6 से 7 किमी तक पैदल ही शहर के कुछ जगहों पर जाकर इसकी बिक्री करते हैं। एक नग की कीमत 3 से 5 रुपए होती हैं। आमतौर पर वे 100 से 150 रु. की बिक्री करते हैं। इसमें कुछ ही रुपए मुनाफा होते हैं।





दिन अच्छा रहा तो 50 नग की बिक्री हो जाती हैं। किसी किसी दिन कुछ ही नग बिक पाते हैं। इस उम्र में जब लोगों को चलने फिरने में भी परेशानी होती है, वह सुबह घर से निकलते हैं और शाम को ही लौटते है। वह भी पैदल। उन्होंने बताया आर्थिक विवशता है। कुछ रुपए आमदनी हो जाती है। घर का चूल्हा जल जाता है। बस। हमारे लिए कौन-कौन सी योजनाएं हैं, जानकारी नहीं है। आमदनी का कोई और जरिया नहीं है। मेहनत से पेट भरते हैं, घर चलाते हैं। बुजुर्ग अवस्था के चलते कई-कई बार चलते-चलते कुछ देर रुककर आराम भी करना पड़ता है। कुछ भले लोग कभी-कभी कुछ मदद भी कर देते हैं। नमो नारायण इस उम्र में भी बिना थके और रुके अपना कार्य करते हैं। थोड़ी देर चर्चा करने के बाद वह बोहनी के लिए आगे बढ़ गए।


दूसरा शख्स वो है, जो शिक्षित है और कई जगह रोजगार की तलाश कर चुका है। और आज भी उसकी तलाश जारी है। अभी हाल ही में वह एमपी की तरफ रोजगार की तलाश में गया था। रोजगार तो नहीं मिला, लेकिन उनका बैग चोरी हो गया। वह रेलगाड़ी से घर लौट रहे थे कि उनका बैग किसी ने चोरी कर लिया। बैग में रखे उनके दस्तावजे, जैसे, प्रमाण पत्र, मार्कशाीट वगैरह चोरी हो गए। नौकरी भी नहीं मिली और बैग के साथ शैक्षिक दस्तावेज भी हाथ से चले गए। वह निराशा के साथ अपने घर कानपुर लौट आए। हालांकि उन्हें अपने मार्कशीट व अन्य प्रमाणपत्रों के क्रमांक पता थे। ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि दूसरा प्रमाणप़त्र संबंधित संस्थान में आवेदन देकर ले लेंगे। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया उनका नाम नरेंद्र है और 12वीं तक शिक्षित हैं। नौकरी नहीं मिलने पर अब वे बैग व कपड़ों के चेन वगैरह की मरम्मत कर जीवन निर्वाह कर रहे हैं।





रोज घर से सुबह निकलते हैं और सूरज ढलते-ढलते वापस पहुंचते हैं। नरेंद्र ने बताया कि चेन की मरम्मत कर वह पेट भरने लायक आमदनी कर लेते हैं। पैदल ही वह एक जगह से दूसरे जगह जाते हैं। आवाज लगाकर लोगों से चेन की मरम्मत कराने को कहते हैं। नरेंद्र ने बताया नौकरी की तलाश के दौरान जितनी बार उन्हें हताशा मिली है। उसकी तुलना में चेन मरम्मत के काम करते समय न के बराबर ही निराश होना पड़ा है। हां। दिनभर चलने से थोड़ी थकान जरूर होती है। लेकिन कभी भी उन्हें खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा है। एक बैग साथ लेकर चलते हैं, जिसमें चेन मरम्मत के लिए कुछ सामान होता है। दिनभर में घूमघूम कर कुछ आमदनी हो जाती है। सामान्यतः वे 200 से 250 रुपए तक आमदनी कर लेते हैं। नरेंद्र कहते हैं, उनकी नौकरी की तलाश चलती रहेगी। जो भी हो, नरेंद्र एक युवा हैं, जिनके पास हुनर है, जिसके बदौलत वे बेरोजगार भी नहीं हैं। लेकिन अधिकतर युवाओं की तरह उन्हें भी नौकरी ही पसंद हैै।


तीसरे शख्स का नाम राम प्रकाश है। जो रेलवे काॅलोनियों व गोदामों के आसपास पैदल चलकर अपना स्वरोजगार चलाते है। उनका रोजगार है नमकीन बेचना। उनके पास एक टिन का डबबा है, जिसमें दो से तीन किलो तक नमकीन भरा रहता है। इसके अलावा उनके पास एक छोटी सी टोकरी और तराजू होती है। उन्होंने बताया कि दिनभर में वह पूरा नमकीन बेचकर ही घर लौटते हैं। ऐसा कम ही दफा होता है, जब उनका नमकीन बच जाता है।

वह कहते हैं कि रेलवे के गोदाम में वाहन चालक, मजदूर और खेलने कूदने आने वाले बच्चे उनके नमकीन को खूब पसंद करते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि एक ही बार में उनका पूरा नमकीन बिक जाता है। तब उन्हें लाभ भी अच्छा होता है। क्योंकि वे दोबारा नमकीन लेकर बेचने पहुंचते हैं। बताया कि दिनभर में वे 300 से 400 रुपए तक आमदनी कर लेते हैं। अब तो उन्हें इस काम में काफी मन लगता है। कहते हैं, दिनभर घूमकर कुछ कमा लेते हैं, जो खाली बैठने से अच्छा है।



चैथा शख्स शीलू एक युवा है। जिसने छोटे मोटे धंधे को बड़ा साबित किया है। इनके पास न कोई दुकान है, न कोई ठेला या कोई जगह। पास में सिर्फ एक टोकरी और एक छोटा से गैस चूल्हा, जो एक टिन के डब्बे में बंद सा दिखता है। चूल्हें पर एक कढ़ाई रहती है। जिसमें वे समोसा छानते हैं। उनके समोसे का आकार ही उनकी खासियत है। उनके समोसे एक आम समोसे की तुलना में चार गुने तक छोटे होते हैं। टोकरी में वे एक बार में एक हजार समोसे लेकर चलते हैं। गली-गली घूमते हैं। अक्सर लोग पास से गुजरते समोसे वाले से समोसा खरीद लेता है। वह बताते हैं कि दुकान पर ग्राहक कम आ सकते हैं। खर्च भी ज्यादा होगा। और जब वह लोगों के पास से गुजरते हैं तो वे लोग भी उनका समोसा खरीद लेते हैं, जिन्हें दुकान पर जाकर समोसा खाने की फुर्सत न हो।

समोसे की कीमत भी एक रुपए प्रति नग है। जिससे कोई भी आसानी से समोसे का स्वाद ले सकता है। शीलू बताते हैं एक बार समोसा बिकने के बाद वह दोबारा समोसा लेने घर जाते हैं। दिनभर में तीन से चार बार घर से समोसा लेकर बेचने निकलते हैं। घर से कच्चा समोसा लेकर आते हैं। जहां पर ग्राहक उनसे समोसा खरीदते हैं, वहीं पर वह हाथों हाथों गैस चालू कर समोसा छानकर दे देते हैं। दिन अच्छा रहा तो वह दो से ढाई हजार समासे आसानी से बेच लेते हैं। इससे उनकी आमदनी भी अच्छी खासी हो जाती है। सामान्य दिनों में वह 400 से 500 रुपए रोज कमा लेते हैं। 


बहरहाल आज, किसी क्षेत्र में रोजगार की तलाश करना काफी मुश्किल भरा साबित हो रहा है। हो भी क्यों न। रोजगार में अब कमी आती जा रही है। कई क्षेत्रों में नौकरियां न के बराबर रह गईं हैं। कुछ गिने चुने क्षेत्रों में जहां रोजगार मिल भी रहे हैं, वहां भी अल्प बेरोजगारी की स्थिति सी बनी रहती है। अर्थात जितना शिक्षित युवा रहता है, उसके सापेक्ष ज्यादातर को वेतन या मेहनताना नहीं मिलता। बेरोजगारों की बढ़ती तादाद नौरियों की कतार रोज बढ़ा रहे हैं। लेकिन कहीं से भी उन्हें कोई राहत नहीं मिल रही हैं। बात सरकारी नौकरियों की करें तो वहां भी जैसे अकाल पड़ा हुआ है। कहीं-कहीं तो आवेदन निकलते हैं, लेकिन उसे पूरा होने में अक्सर कई-कई साल लग जाते हैं। ऐसे में नौकरी की तलाश कर रहे युवा के सिर पर धीरे-धीरे जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ने लगता है। तब कोई ठेला लगाता है, तो कोई पकौड़े बेचता है। कोई भी कार्य बुरा नहीं होता। फिर भी हर युवा सपना तो देखता ही है। जब वे पूरे नहीं होते तो इसकी कसक कहीं न कहीं तो रह ही जाती है।


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