नर्मदा, सरदार सरोवर बांध, 40 हजार परिवार, एनबीए, विरोध

S.Khan July 10, 2017 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 17 मी. बढ़ाने की तैयारियां हैं। 18 हजार 841 परिवार असमंजस में हैं। उन्हें डूब रहे अपने घरों की चिंता है। नए घर को लेकर आशंकित हैं। जहां सुविधाओं के नाम पर शायद पथरीली जमीन ही है। सरकार ने नोटिफिकेशन जारी कर दी है। परिवारों की सूची प्रकाशित हो चुकी है। 31 जुलाई से पूर्व संपत्ति खाली करना है। नर्मदा नदी के 130 किमी क्षेत्र के दोनों तरफ 2 से 5 किमी तक पानी का फैलाव हो सकता है। नर्मदा विकास प्राधिकरण ने जो 63 पुनर्वास स्थल तैयार बनाए हैं। उनके हालात खस्ता हैं। वहां रहना मुश्किल भरा होगा। ज्ञात हो, नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 17 मी. बढ़ानी है। अभी बांध 121.92 मी. ऊंचा है। जिसे अब 138.68 मी. तक किया जाएगा।

बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध तो हो ही रहा था। अब बिना पुनर्वास के ही गेट बंद करने की तैयारी है। ऐसा नर्मदा बचाओ आंदोलन की तरफ से कहा जा रहा है। जो लगातार आंदोलन कर रही है। मप्र के बड़वानी में नर्मदा घाटी के डूब प्रभावितों को न्याय दिलाने का संकल्प लिया गया है। हाल ही में किसान मुक्ति यात्रा शुरू की गई है। शनिवार को यात्रा बड़वानी पहुंची थी। डूब प्रभावितों और किसानों के हक के लिए मंदसौर से निकली यह यात्रा दिल्ली तक जाएगी। नबआं नेत्री मेधा पाटकर ने डूब प्रभावितों के हक में आवाज बुलंद की। बांध के चलते 40 हजार प्रभावित परिवारों को खतरे की ओर धकेलने की बात कही। बोलीं, आदर्श पुनर्वास व रोजगार के साधनों के बिना घरों को डुबोना गलत होगा। 


पारस साकलेचा ने कहा मप्र के सीएम शिवराजसिंह चौहान गुजरात राज्य की गुलामी कर रहे हंै। गुजरात के लिए 8 लाख लोगों को गिरवी करने पर तैयार हैं। 40 हजार हे. भूमि डूबेगी। बगैर आदर्श पुनर्वास डूब क्षेत्र के लोगों को नहीं हटाना चाहिए। इस दौरान राष्ट्रीय किसान नेता योगेंद्र यादव दिल्ली, सांसद राजू शेट्टी महाराष्ट्र, वीएम सिंह उप्र, पूर्व विधायक व किसान संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुनीलम मप्र,  जसविंदर सिंह, हरपाल सिंह चौधरी उप्र, रामपाल जाट और डेलनपुर मंदसौर के मृतक किसानों के परिजन सहित देशभर से पहुंचे दो सौ सामाजिक कार्यकर्ता आदि उपस्थित रहे। इस दौरान डूब गांवों में डूब प्रभावित और नबआं कार्यकर्ता भूख हड़ताल पर बैठे। बिना पुनर्वास के लोगों को डूबाने के विरोध में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का निर्णय लिया गया। 






नबाआं की माने तो, सरदार सरोवर परियोजना में डूब क्षेत्र में आ रहे बड़वानी के 57 गांवों में राजपत्र के मुताबिक 5 हजार 139 परिवारों का नाम डूब प्रभावितों में है। जबकि नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के एक्शन टेकन रिपोर्ट के अनुसार 17 हजार 497 परिवार डूब में आ रहे हैं। 12 हजार 358 परिवारों का पुनर्वास शेष है। इनका क्या होगा। कार्ययोजना नहीं बनाई गई है। और 15 जुलाई के पहले गांव खाली करने को कहा जा रहा है। मकान छोड़ दो, संपत्ति छोड़कर मूलगांव से पुनर्वास स्थल या डूब से बाहर निवास कर लो, वचन पत्र भरावने के लिए सरकार द्वारा धमकाया जा रहा है। विस्थापितों का कहना है बिना पुनर्वास मूलगांव कैसे छोड़ सकते हैं। अधिकारी भी हमारे गांव आकर देखे कि हमारे मूलगांव जैसे पुनर्वास स्थलों पर मूलभूत सुविधाएं भी आज तक पूर्ण नहीं हुर्इं हैं।

नबआं के गमरसिंह भीलाला के मुताबिक आज भी हजारों परिवारों का पुनर्वास करना बाकी है। राजपत्र में 5 हजार 139 परिवारों में से ज्यादातर मूलगांव में ही हैं। परिवारों को भूखंड या आजीविका साधन नहीं दिया गया है। महिला खातेदार, अविवाहित खातेदार, नाबालिग खातेदार को भी 60 लाख रु. का भुगतान नहीं हुआ है। बिना पुनर्वास मूलगांव कैसे छोड़ सकते हैं। नबआं के भागीरथ धनगर ने कहा विस्थापितों को लालच देकर कह रहे हैं कि आपको 80 हजार रु. का इनाम दिया जाएगा। लेकिन विस्थापितों का सर्वोच्च अदालत, नर्मदा ट्रिब्यूनल फैसला व राज्य की पुनर्वास नीति के अनुसार पुनर्वास होना चाहिए। इसका पालन नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण या राज्य सरकार नहीं कर रही है।  


नबआं के कैलाश गोस्वामी ने कहा सर्वोच्च अदालत के आदेश 8 फरवरी 2017 में लिखा है कि पुनर्वास स्थलों पर मूलभूत सुविधाएं तैयार करना था, जो नहीं हो पा रही हैं। सरकार अदालत का उल्लंघन कर रही है। विस्थापितों के 681 परिवारों को 60-60 लाख रु. का भुगतान देना था। जो कई परिवारों को नहीं मिला है। 13 हजार 58 परिवारों को भी 15-15 लाख रु. भुगतान करना था। इसमें 7 सौ परिवारों को भुगतान किया गया है। बाकी को भुगतान नहीं किया गया है। यह सर्वोच्च अदालत के आदेशों का उल्लंघन है। 
(उपरोक्त स्त्रोत पत्रिका समाचार पत्र)

कब-कब क्या हुआ, प्रमुख तथ्य
नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 बांधों में सरदार सरोवर व महेश्वर बांध सबसे बड़ी बांध परियोजनाएं हैं। इनका लगातार विरोध होता रहा है। इसका उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाना और मप्र के लिए बिजली पैदा करना है। जुलाई 1993 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने सात वर्षों के अध्ययन के बाद नर्मदा घाटी में बनने वाले सबसे बड़े सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों के बारे में शोधपत्र प्रस्तुत किया। कहा गया पुनर्वास गंभीर समस्या रही है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया बांध निर्माण रोक दिया जाए। नए सिरे से विचार हो। 

अगस्त 1993 में परियोजना के आंकलन के लिए भारत सरकार ने योजना आयोग के सिंचाई मामलों के सलाहकार के नेतृत्व में पांच सदस्यीय समिति गठित की। दिसंबर 1993 में केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने कहा सरदार सरोवर परियोजना ने पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन नहीं किया है। जनवरी 1994 में विरोध को देखते हुए प्रधानमंत्री ने परियोजना का काम रोकने की घोषणा की। मार्च 1994 में मप्र के सीएम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। मप्र के मुख्यमंत्री ने पत्र में कहा राज्य सरकार के पास इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पुनर्वास के साधन नहीं हैं। 


अप्रैल 1994 में विश्व बैंक ने अपनी परियोजनाओं की वार्षिक रिपोर्ट में कहा सरदार सरोवर परियोजना में पुनर्वास का काम ठीक से नहीं हो रहा है। जुलाई 1994 में केंद्र सरकार की पांच सदस्यीय समिति ने रिपोर्ट सौंपी। लेकिन अदालत के आदेश के कारण इसे जारी नहीं किया जा सका। इसी महीने में कई पुनर्वास केंद्रों में प्रदूषित पानी पीने से दस लोगों की मौत हुई। नवंबर दिसंबर 1994 में बांध बनाने के काम दोबारा शुरू करने के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भोपाल में धरना देना शुरू किया। दिसंबर 1994 में मप्र सरकार ने विधान सभा के सदस्यों की समिति बनाई, जिसने पुनर्वास के काम का जायजा लेने के बाद कहा कि भारी गड़बडिय़ां हुई हैं। 






जनवरी 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि पांच सदस्यों वाली सरकारी समिति की रिपोर्ट को जारी किया जाए। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बांध की उपयुक्त ऊंचाई तय करने के लिए अध्ययन के आदेश दिए। मार्च 1995 में विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि सरदार सरोवर परियोजना गंभीर समस्याओं में घिरी है। जून 1995 में गुजरात सरकार ने नर्मदा नदी पर एक नई विशाल परियोजना कल्पसर शुरू करने की घोषणा की। नवंबर 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दी। 

1996 में उचित पुनर्वास और जमीन देने की मांग को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में अलग-अलग बांध स्थलों पर धरना प्रदर्शन किया गया। अप्रैल 1997 में महेश्वर के विस्थापितों ने मंडलेश्वर में जुलूस निकाला। जिसमें ढाई हजार लोग शामिल हुए। लोगों ने सरकार और बांध बनाने वाली कंपनी एस कुमार्स की पुनर्वास योजनाओं पर सवाल उठाए। अक्तूबर 1997 में बांध बनाने वालों ने अपना काम तेज किया, जबकि विरोध भी जारी रहा। जनवरी 1998 में सरकार ने महेश्वर और उससे जुड़ी परियोजनाओं की समीक्षा की घोषणा की। काम रोका गया। 


अप्रैल 1998 में दोबारा बांध का काम शुरू हुआ। स्थानीय लोगों ने निषेधाज्ञा तोड़कर बांधस्थल पर प्रदर्शन किया। पुलिस ने लाठियां चलाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े। मई जुलाई 1998 में लोगों ने जगह-जगह नाकाबंदी करके निर्माण सामग्री को बांधस्थल तक पहुंचने से रोका। नवंबर 1998 में बाबा आमटे के नेतृत्व में विशाल जनसभा हुई। अप्रैल 1999 तक ये सिलसिला जारी रहा। दिसंबर 1999 में दिल्ली में सभा हुई। इसमें नर्मदा घाटी के हजारों विस्थापितों ने हिस्सा लिया। मार्च 2000 में बहुराष्ट्रीय ऊर्जा कंपनी ऑगडेन एनर्जी ने महेश्वर बांध में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी के एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।  
(उपरोक्त  स्त्रोत बीबीसी)


क्या है नर्मदा बचाओ आंदोलन
नर्मदा बचाओ आंदोलन पर्यावरण आंदोलनों में शुमार है। इसने पहली बार पर्यावरण व विकास के संघर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया। इसमें विस्थापित लोगों, वैज्ञानिकों, गैर सरकारी संगठनों व आम जनता की भी भागीदारी रही। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना का उद्घाटन 1961 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। लेकिन तीन राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के मध्य एक उपयुक्त जल वितरण नीति पर कोई सहमति नहीं बन पाई। 1969 में सरकार ने नर्मदा जल विवाद न्यायधिकरण का गठन किया, ताकि जल संबंधी विवाद का हल हो सके और परियोजना का कार्य शुरु हो। 


वर्ष 1979 में न्यायधिकरण सर्वसम्मति पर पहुंचा और नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया। इसमें नर्मदा नदी पर दो विशाल बांध गुजरात में सरदार सरोवर बांध और मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर बांध, 28 मध्यम बांध व 3 हजार जल परियोजनाओं का निर्माण शामिल था। 1985 में परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की। 

सरकार के अनुसार परियोजना से मप्र, गुजरात व राजस्थान के सूखा ग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हे. भूमि को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा। बिजली का निर्माण होगा। पेयजल मिलेगा। बाढ़ को रोका जा सकेगा। नर्मदा परियोजना ने गंभीर विवाद को जन्म दिया है। एक ओर परियोजना को समृद्धि व विकास का सूचक माना जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप सिंचाई, पेयजल की आपूर्ति, बाढ़ पर नियंत्रण, रोजगार के नए अवसर, बिजली व सूखे से बचाव आदि लाभों को प्राप्त करने की बात की जा रही है, वहीं दूसरी ओर अनुमान है कि इससे तीन राज्यों की 37 हजार हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जाएगी। इसमें 13 हजार हेक्टेयर वन भूमि है। अनुमान है इससे 248 गांवों के एक लाख से ज्यादा लोग विस्थापित होंगे। इनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्रों के हैं।


परियोजना के विरोध ने अब जन आंदोलन का रूप ले लिया है। 1980-87 के दौरान जन जातियों के अधिकारों की समर्थक गैर सरकारी संस्था अंक वाहनी के नेता अनिल पटेल ने जनजातिय लोगों के पुर्नवास के अधिकारों को लेकर हाईकोर्ट व सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई लड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के परिणामस्वरूप गुजरात सरकार ने दिसंबर 1987 में पुर्नवास नीति घोषित की। 1989 में मेघा पाटकर द्वारा लाए गए नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना व इससे विस्थापित लोगों के पुर्नवास की नीतियों के क्रियांवयन की कमियों को उजागर किया। 

शुरू में आंदोलन का उद्देश्य बांध निर्माण रोक पर्यावरण विनाश व इससे लोगों के विस्थापन को रोकना था। बाद में आंदोलन का उद्देश्य बांध के चलते विस्थापित लोगों को सरकार द्वारा दी जा रही राहत कार्यों की देख-रेख व उनके अधिकारों के लिए न्यायालय में जाना बन गया। आंदोलन की यह भी मांग है कि जिन लोगों की जमीन ली जा रही है, उन्हें योजना में भागीदारी का अधिकार होना चाहिए। उन्हें अपने लिए न सिर्फ उचित भुगतान का अधिकार होना चाहिए, बल्कि परियोजना के लाभों में भी भागीदारी होनी चाहिए। 

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने 1989 में एक नया मोड़ लिया। सितंबर 1989 में मप्र के हरसूद जगह पर आम सभा हुई। 200 से अधिक गैर सरकारी संगठनों के 45 हजार लोगों ने हिस्सा लिया। पहली बार नर्मदा का प्रश्न अब राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। पर्यावरण के मुद्दे पर अबतक की सबसे बड़ी रैली थी। इसमें देश के सभी बड़े गैर सरकारी संगठनों व आम आदमी के अधिकारों की रक्षा में लगे समाजसेवियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन ने बांध का विरोध किया गया। इसे विनाशकारी विकास का नाम भी दिया गया। 


दिसंबर 1990 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने संघर्ष यात्रा निकाली। लगभग 60 हजार लोगों ने राजघाट से मप्र, गुजरात तक पदयात्रा की। जन भावनाओं को ध्यान में रखते हुए विश्व बैंक ने 1991 में बांध की समिक्षा के लिए निष्पक्ष आयोग का गठन किया। आयोग ने कहा कि परियोजना का कार्य विश्व बैंक व भारत सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं हो रहा है। इस तरह विश्व बैंक ने इस परियोजना से 1994 में अपने हाथ खींच लिए। हालांकि राज्य सरकार ने परियोजना जारी रखने का निर्णय लिया। इसपर मेधा पाटकर ने 1993 में भूख हड़ताल रखी। उद्देश्य बांध निर्माण स्थल से लोगों के विस्थापन को रोकना था। 

आंदोलनकर्ताओं ने जब देखा कि नर्मदा नियंत्रण निगम व राज्य सरकार 1987 में पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों को नहीं लागू कर रही है तो 1994 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की। केस के निपटारे तक बांध के निर्माण कार्य को रोकने की गुजारिश की। 1995 के आरंभ में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सरकार बांध के बाकी कार्यों को तबतक रोक दे जबतक विस्थापित हो चुके लोगों के पुर्नवास का प्रबंध नहीं हो जाता। 

18 अक्टूबर 2000 को सर्वोच्च न्यायालय ने बांध के कार्य को फिर शुरू करने व इसकी ऊंचाई 90 मीटर तक बढ़ाने की मंजूरी दे दी। ऊंचाई पहले 90 और फिर 138 मीटर तक जा सकती है। न्यायपालिका  ने विस्थापित लोगों के पुर्नवास के लिए नए दिशा-निर्देश दिए। नए स्थान पर पुर्नवासित लोगों के लिए 5 सौ व्यक्तियों पर एक प्राईमरी स्कूल, पंचायत घर, चिकित्सालय, पानी व बिजली की व्यवस्था व धार्मिक स्थल अवश्य होना चाहिए।


अप्रैल 2006 में बांध की ऊंचाई 110 मी. से बढ़ाकर 122 मी. तक ले जाने का निर्णय लिया गया। मेघा पाटकर अनशन पर बैठ गईं। 17 अप्रैल 2006 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने संबंधित राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि यदि विस्थापितों का उचित पुनर्वास नहीं हुआ तो बांध का और आगे निर्माण कार्य रोक दिया जाएगा। एनबीए की ओर से नेत्री मेधा पाटकर की अगुवाई में आंदोलन अभी भी जारी है।  
(उपरोक्त  स्त्रोत विकासपीडिया)


सरदार सरोवर बांध की कुल ऊंचाई- 455 फीट
वर्तमान में पानी की स्थिति- 400 फीट
बांध की लंबाई- 214 किमी
बांध स्थल- नवागाम, गुजरात
किसी नदी पर- नर्मदा नदी

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